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November 22, 2024 4:20 am

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सत नाम का अलख जगाने वाले गुरु घासी दास बाबा :: डा.पालेश्वर प्रसाद शर्मा

छत्तीसगढ़ पौराणिक, ऐतिहासिक संपदा से संपन्न हो न हो इस पर विवाद विचार हो सकता है। किन्तु यह सत्य है कि इस अंचल में दो पुण्यशाली संतों ने जन्म लिया एक है- चम्पारण्य – राजिम के निकट महाप्रभु वल्लभाचार्य और दूसरे हैं- गिरौदपुरी में गुरु घासीदास। एक ने परात्पर परब्रम्ह श्रीकृष्ण की आराधना में पुष्टि मार्ग का प्रणयन किया तो दूसरे संत ने सत् नाम की अलख जगायी। एक ओर परात्पर प्रभु की साकार-उपासना में अष्ट छाप के महाकवियों के गीतों-प्रगीतों की अनुगुंज है तो दूसरी ओर सहज शाश्वत सत्य के निराकार ईश्वर की अर्चना आराधना है। एक की साधारण में माधुर्य की महिमा है, अनुग्रह की आकांक्षा है, दर्शन की दुरूहता है, तो दूसरी ओर सहज नाम की माला है, अहिंसा का आचरण है, श्रम की निर्मल निरीहता है।

जन्म से निरीह, स्वभाव से सरल, जाति से सर्वथा साधारण, वैभव में विपन्न, धनधान्य में निरन्न होकर भी साधन की साधना में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। प्रायः अनेक साधु संत, विपन्नता, विपदा के बीच विशिष्ट साधना कर सके, ऐसा क्यों होता है ? जब जब विपदा के बादल मंडराते हैं तब तब प्रतिभा की बिजली कौंध उठती है। संघर्ष के सरोवर में ही सत्पुरूष का सरोज खिलता है, और सत्कर्म की सुरभि फैलती है। सदाचरण-सत्याचरण-सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की ओर ले जाता है इसलिए कथन है – नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः अशक्त निर्बल आत्मा सत्य शिव सुंदर को नहीं पा सकती। गरीबी का दर्द आदमी को मांजता है, मनुष्यता को जगाता है, शायद इसीलिए गरीब दूसरों की पीड़ा की अनुभूति का साझेदार होता है अनुभूति-सह-अनुभूति में तथा वेदना- संवेदना में परिणत हो जाती है।किसी समय वर्ण-व्यवस्था समाज में कर्म विभाजन के लिए बनायी गयी होगी….किंतु शनैः शनैः उसका रूप विरूप हो गया। व्यवस्था जाति तथा जन्म पर आकर जम गयी, थम गयी… समाज का वृक्ष शाखा प्रशाखा में विस्तार पा रहा था, कि डालियों टहनियों में कट छंटकर डार डार पात-पात हो गया संगठन विघटन में बदला…..जाति गत अहं निर्ममता, द्वेष-विद्वेष ने खंडित विखंडित कर दिया। आज देश में उसका विकास विकृति के साथ फैल चुका है। झूठे अहं में निरंकुशता पनपती है, तो निरीह प्राणी एक सीमा के पश्चात् पीड़ा में कराहता ही नहीं, विद्रोह के वैश्वानर में धधक उठता है। इतिहास में ऐसे विद्रोह के वैश्वानर में कमर भर धोती, पेट भर रोटी के लिए जूझता मनुष्य सदाचारी हो तो कैसा विस्मय ! सदाचार-संयम, सज्जनता के सद्गुण लाता है शायद इसीलिए संत को अपने पशुओं से भी प्यार था। एक हलवाहा “दो बैलों की व्यथा-कथा” को प्रेमचंद समान समझता है, उन निरीह पशुओं को बलि, उन पशुओं की हत्या और फिर मांसाहार-मन कहीं पर आहत ही नहीं मर्माहत हो जाता है। आज से अढ़ाई साल पहले तथागत को भी बलि-प्रथा से पीड़ा हुई थी और सारनाथ के मृगदांव में अमिताभ की अमृत वाणी गूंज उठी थी। उसी अहिंसा की अनुगूंज पुनरपि सुनाई पड़ी, और साधारण जनता भी पशु-हत्या के विरुद्ध उठ खड़ी हुई। मांसाहार अच्छा है या बुरा आज यह कह सकना कठिन सा जान पड़ता है, किंतु यह तो सच है कि हड्डी चबाते हुए, मांस नोचते हुए मनुष्य का चेहरा कुछ-कुछ जानवरों का सा हो जाता है। अनजाने ही पाशवी मुखड़ा दिखाई देता है। यह तो कठोर सत्य है कि पशु के मरते ही उस लाश में विषाणु बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। निर्जीव मांस कब कितना विषाक्त हो गया- यह जानना सरल नहीं है। कसाई खाने में एक बकरे का कटा सिर जब मिमियाता है और धड़ तड़पता है, तो उसके बाद कटने वाला बकरा करूण कातर होकर छोटी सी पूंछ दबाकर निष्फल विरोध में घिघियाता है, और फटी फटी आंखों से प्राण-रक्षा के लिए निहारता है तो कठोर काठ को भी दया आ सकती है किंतु किंतु ! कोई कुछ भी कहे, अहिंसा में जो आत्मशक्ति होती है, उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। मांसाहारियों से निवेदन है, कि वे चुपचाप कसाईखाने का कृत्य देखें.. काफी है। कलकत्ता में तो एक किलोमीटर दूर से ही मत्स्य गंध नासापुटों को बंद करने के लिए विवश करने लगती है। स्वच्छता प्रेमी ..इतना ही इशारा वीथिका की दुर्गंध ,सत्य स्वार्थ का आवरण, असत्य के आच्छादन से ढका है। सत्य के अन्वेषण में साधक को सबसे अधिक संघर्ष करना पड़ता है। एक ओर असत्य का आक्रमण तो दूसरी ओर कटुता के कांटे, तीसरी ओर विषाक्त वातावरण तथा चौथी ओर पत्नी, पुत्र परिजनों का प्यार, इन सबके बीच सत्य की साधना अकेले कंठ की पुकार अंततोगत्वा अमृत वाणी आत्मा को आत्यायित करती है। संत के लिए जगत का जंजाल सर्वथा भयानक होता है। सतत् सावधान रहकर जिजीविषा से अनुप्राणित संत संयंम की डगर पर सत्य की खोज में सफल होता है।

हमारा देश कई वस्तुओं में अनोखा है, अद्भुत है। पहले भी नारी की पूजा होती थी, आज भी होती है। अंतर केवल इतना है कि पूजा आंचलिक भाषा के अर्थ में प्रयुक्त हो रही है। सुभद्रा के साथ अभद्रता मनुष्य की कुत्सा का ही परिचायक है।

सत्य ही ईश्वर है या ईश्वर ही सत्य है इसका बोध यदि तेंदू तरू तले हुआ तो इस अंचल के लिए कोई आश्चर्य नहीं। कांतार में वनैले फलों से लदे तरू वृदों की छाया भी सुखद होती है। कोकिल तो अमराई में बहकती लहकती आम्रमंजरी की तीखी तुर्श गंध से ही उलसने लगती है उसकी काकली आप ही आप कुहकने लगती है। घने वन की नीरवता में सत्य का साक्षात्कार, सत्यबोध ही साधक को सिद्ध बनाता है। सत्याचरण ईश्वरीय मार्ग है सहज जन मानस प्रेरित, प्रणोदित हो अनुकरण करता है, अनुयायी बन जाता हैं सत्यनाम का संदेश- अमृतवाणी के रूप में घाटे घाटे बाटे-बाटे वितरित होता है। मानवता की महिमा, संत की साधना की सुगंध चारों ओर फैलती है। कल तक विक्षुब्ध जनमानस आज संत की अमृतवाणी से आप्यायित हो गया, सत्नाम के सरोवर में डूब गया शायद इसीलिए अनुयायी सत्नामी कहलाये। ऐसा पंथ ऐसी उपासना पद्धति, जहां कोई भेदभाव नहीं सत् के ईश्वरत्व में सब सराबोर हो जाते हैं। सत्य से ऊपर कोई नहीं वह सर्वोपारि है, सर्वश्रेष्ठ है इसीलिए सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरण ईश्वर प्राप्ति का ही सहज मार्ग है। सदाचार में हिमालय की उचता है तो सत्नाम में गंगा की पावनता। मन के मानस से मानवता की मंदाकिनी प्रवाहित होती है। संत की साधना ही सिद्धि है, जहां साधक स्वयं साध्य बन जाता है, आराधक आराध्य में अंतर्लीन। आइये ईश्वर को सत्य को जानने का प्रयास करें जहां जानना ही बनना है।

 

 

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