असंख्य भाषाओं, सांस्कृतिक परंपराओं और भौगोलिक परिदृश्यों का घर, भारत हमेशा सर्वोत्कृष्ट विभिन्न रूपकों के एकरूपता वाले समाज के रूप जाना जाता है। यह साझा विरासत के लिए जाना जाता है और सतत भारतीय समाज की विशेषताओं को व्यापार, यात्रा और विज्ञान में विकास के माध्यम से सतत स्थापित करता रहा है. बनारस में यह प्रक्रिया युगों से आगे बढ़ा रही है। ऐसा ही एक पहलू यह भी है कि काशी और तमिलनाडु के बीच सदियों पुराना संबंध है, जिसे इन दिनों काशी-तमिल संगमम में मनाया जा रहा है, जिसे भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा 17 नवंबर से 16 दिसंबर, 2022 तक आयोजित किया जा रहा है। इस महत्व पर जोर देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा था “संगमों का हमारे देश में अत्यधिक महत्त्व है, वह संगम चाहे नदियों का हो या ज्ञान और विचारों का। यह संगम भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृतियों का उत्सव है। यह विभिन्न राज्यों के समान सांस्कृतिक संबंधों की खोज और एक भारत श्रेष्ठ भारत के संदेश को बढ़ाने के लिए दिशा प्रदान करता है। इन दो धाराओं के सम्बन्ध पांड्यों के प्राचीन काल से लेकर काशी के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक बीएचयू की नींव तक रहे है. और वर्तमान में दोनों के बीच संबंध, शिक्षा की आदरणीय पीठ के रूप में सजीव हैं.
रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, “यदि ईश्वर की इच्छा होती, तो सभी भारतीय एक ही भाषा बोलते…. भारत की शक्ति अनेकता में एकता रही है और हमेशा रहेगी।” देश में आज 19500 से अधिक भाषा बोलियाँ बोली जाती हैं, जिनमें काशी और तमिलनाडु दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं संस्कृत और तमिल के केंद्र रहे हैं। सुब्रमण्यम भारती जैसे दिग्गज काशी में रहे, उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी और स्थानीय संस्कृति को समृद्ध किया और तमिल में व्याख्यान दिए। विभिन्न जीवंत परंपराओं के इस तरह के आत्मसात करने से ही भारत सांस्कृतिक लोकाचार की विशेषता वाले समकालिक संपूर्णता को बनाए रखने में सक्षम रहा है।
भारतीय सभ्यता के इतिहास में काशी और तमिलनाडु दोनों को ज्ञान अन्वेषण एक जीवंत भाषाई परंपरा के विकास और आध्यात्मिकता के प्रसार में उनके योगदान के लिए उच्च स्थान प्राप्त है। 15वीं शताब्दी में, शिवकाशी की स्थापना करने वाले राजवंश के वंशज राजा अधिवीर पांडियन ने दक्षिण-पश्चिमी तमिलनाडु के तेनकासी में उन भक्तों के लिए शिव मंदिर बनवाया, जो काशी की यात्रा नहीं कर सकते थे। उसके बाद 17 वीं शताब्दी में तिरुनेलवेली में पैदा हुए श्रद्धेय संत कुमारगुरुपारा ने काशी पर कविताओं की व्याकरणिक रचना “काशी कलमबकम” लिखी और कुमारस्वामी मठ की स्थापना की। इस आदान-प्रदान ने न केवल दो क्षेत्रों के लोगों को अलग-अलग रीति-रिवाजों से परिचित कराया, बल्कि इसने परंपराओं के बीच की सीमाओं को इतना सहज और गतिशील बना दिया, जिससे वे एक दूसरे में समाहित होते थे। काशी और तमिलनाडु दोनों महत्वपूर्ण मंदिरों के शहरों के रूप में उभरे हैं, जिनमें काशी का विश्वनाथ मंदिर और रामनाथस्वामी मंदिर जैसे सबसे शानदार मंदिर शामिल हैं। प्रसिद्ध लेखक और व्यवसायी एस. एम. एल. लक्ष्मणन चेट्टियार (1921-1986) का जन्म शिवगंगा में हुआ था और उन्होंने काशी से लेकर रामेश्वरम तक के भारत के प्रमुख मंदिरों पर लगभग 20 कुंभाभिषेकम संस्करणों का संकलन किया था। यह महत्वपूर्ण कार्य वर्षों की व्यापक यात्रा और अन्य क्षेत्रों की परंपराओं को आत्मसात करने के बाद संभव हो पाया। 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक और परंपराओं और दूसरी ओर वैज्ञानिक विकास को साथ रख कर सीखने का परिवेश निर्मित करती है. इस नीति में स्वदेशी ज्ञान मजबूती से निहित है जो वैश्विक प्रगति के साथ तालमेल रखता है।
काशी और तमिलनाडु के बीच के संबंध सभी क्षेत्रों में फैले हुए हैं और उनके बीच सक्रिय अकादमिक, साहित्यिक और कलात्मक संवाद का इतिहास रहा है। जहां काशी ने पंडित परम्परा को स्थापित किया, वहीं तमिलनाडु ने तमिल इलक्कियापरंबराई (तमिल साहित्यिक परंपरा) का उदय देखा । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में महान वैज्ञानिक सीवी रमन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली
राधाकृष्णन इसके कुलपति थे। काशी और चेन्नई दोनों को यूनेस्को द्वारा “संगीत के सृजनात्मक शहरों” के रूप में मान्यता दी गई है और इस शानदार संबंध को इस रूप में देखा जा सकता है कि महान गायक, अभिनेत्री और भारत रत्न से सम्मानित एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी ने काशी की प्रसिद्ध हिंदुस्तानी गायिका सिद्धेश्वरी देवी से संगीत सीखा था। किसी स्थान की संस्कृति का सबसे अच्छा अध्ययन और उसकी सौंदर्य परंपराओं द्वारा परिभाषित किया जा सकता है और इन दोनों स्थानों ने साझा कला और साहित्य के समृद्ध कोष को संरक्षित और पोषित किया है।
प्राचीन काल से ही समाजों का उद्भव और विकास नदियों के आसपास हुआ है। परिवहन, व्यापार और वाणिज्य हो या फिर कविता, सभी क्षेत्रों में नदियाँ केंद्र में रही हैं। काशी और तमिलनाडु दो सबसे संपन्न नदियों, गंगा और कावेरी, जिसे दक्षिण गंगा भी कहते हैं; के कारण से विशिष्ठ हैं। इन नदियों के तट के समाज में उन नदियों की पवित्रता समाहित है और इनमें एक प्रकार की सांस्कृतिक और दार्शनिक एकता प्रदर्शित होती हैं। इसने न केवल उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान हुआ बल्कि इसके परिणामस्वरूप कला और साहित्य के प्रमुख कार्य भी हुए हैं।
जब हमें विरासत में इस तरह का जीवंत इतिहास और जुड़ाव मिला हो तो इसका संरक्षण सर्वोपरि हो जाता है। यह अनिवार्य है कि इस साझा विरासत का ज्ञान युवा पीढ़ी को दिया जाए और उन्हें भारत की सांस्कृतिक और सभ्यतागत लोकाचार के बारे में एक दृष्टिकोण प्रदान किया जाए। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था, “विविधता में एकता को पाने की हमारी क्षमता ही हमारी सभ्यता की सुंदरता और
परीक्षा होगी।” काशी- तमिल संगमम इसी आदर्श को प्राप्त करने का एक प्रयास है। यह देश के दो सिरों, उत्तर और
दक्षिण के मिलन का प्रतीक है। यह एक ऐसा स्थान है जहां छात्र, शिक्षक, सभी क्षेत्रों के पेशेवर और संस्कृति और
विरासत के विशेषज्ञ एक साथ आते हैं और इस साझा विरासत के सार को जीवित रखने का प्रयास करते हैं और
नए मार्ग बनाने के लिए प्रयास करते हैं। यह साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, संगीत वगैरह और किताबों के अनुवाद पर तमिलनाडु से आए मेहमानों के लिए सेमिनार और काशी, अयोध्या और प्रयागराज के दौरों के माध्यम से किया जा रहा है। दोनों शहरों की कलात्मक और सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, कार्यक्रमों में भरतनाट्यम और लोक नृत्य प्रदर्शन, कला-संस्कृति पर प्रदर्शनियां, संगीत और किताबें और दक्षिण भारतीय भोजन और तमिल फिल्मों पर आधारित त्योहार भी शामिल हैं। भारत की पहचान सदियों से चली आ रही काशी-तमिल की तरह समागमों को आत्मसात करने की क्षमता का परिणाम है और ऐसे हजारों सूत्र हैं जो इसे आज की तरह महत्वपूर्ण सम्मिलन का निर्माण करते हैं।