लेखक के पिता स्व. श्री कृष्णानंद वर्मा तात्कालीन सी.पी. एंड बरार / मध्यप्रदेश के कुछ गिने चुने उन वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से थे जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली द्वारा ‘सीनियर एडव्होकेट का पद प्रदत्त किया गया था। उनका व्यक्तिगत सम्बन्ध ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद, मुंगेर के स्वामी सत्यानंद, मथुरा हरिद्वार के आचार्य श्री. राम शर्मा एवं मदर टेरेसा से था।
इस वातावरण में रहते हुए लेखक के मन में यह विचार आया कि यदि ईश्वर के पश्चात माता-पिता ही सर्वाधिक सम्मानीय है और पितृ पक्ष के दौरान उनका आगमन स्वर्ग से अपने घर में बताया गया है तब इस पखवाड़े में किसी भी नई वस्तु का क्रय, किसी शुभ कार्य की शुरूआत, विवाह की चर्चा, गृह प्रवेश आदि वर्जित क्यों है?
अपनी इस शंका के निवारण के लिए लेखक ने इस विषय में प्रकाण्ड पंडित स्म रमाकांत मिश्रा ‘शास्त्री’ अधिवक्ता बिलासपुर से चर्चा की तब उनकी शंका का निवारण पं. रमाकांत मिश्र जी ने निम्नानुसार किया
श्राद्ध पक्ष होने के कारण लोगों ने इस परम पुनीत पितृ पक्ष को केवल श्राद्ध पक्ष होने का मन में अनुचित धारणा बनाकर शुभ कर्मों के लिए अयोग्य मान लिया है। निराधार रूप से लोग यह पितृ पक्ष है, कोई शुभ काम नहीं होगा, ऐसा कहते हैं, किन्तु यह न तो पौराणिक धारणा है और न विद्वान लोगों का ऐसा मत है। यह पक्ष जहां एक ओर पितरों का पितरों के श्राद्ध के लिए माना है वहाँ इसी पक्ष में कपिला षष्ठी, चन्द्र षष्ठी और अष्टमी को महालक्ष्मी जैसे पुनीत पर्व मनाये जाते है।
“पुत्र सौभाग्य राज्यायुः प्राप्यते ।
यदुपाशनात् असिन कृष्ण अष्टाम्याम् कमला मर्चये नरः।
(पुराण समुच्चय में)
इसी पक्ष की पष्ठी तिथि को भगवान सूर्य की प्रतिमा के साथ कपिला की पूजा करें जिससे मनुष्य की आयु, धनश्री, समृद्धि की वृद्धि होती है।
नाम से षष्ठी
“दिव्यमूर्तिरजगत् चक्षु द्वादशात्मः दिवाकरः।
कपिला तो देवो मम् मुक्तिम् प्रयच्छत्।’
इस तरह जिस पक्ष में देवी देवता महालक्ष्मी आदि की पूजा का पर्व होता हो उस पक्ष को शुभ कर्म के लिए वर्जित कैसे कहा जा सकता है। यह भ्रांति समाज में निराधार रूप से फैलायी गयी है अतः सुविज्ञ जनों को शुभ कर्मों के लिए भी इस पक्ष को उचित मानना चाहिए।
पितृ पक्ष क्या है आश्विन का कृष्ण पक्ष पितृ पक्ष अर्थात “महालय”” कहलाता है, देवताओं के स्थान को “मंदिर”, देवियों के स्थान को “प्रासाद-भवन’ और पितरों के निवास, स्थापना को “आलय” कहते हैं यद्यपि तीनों समानार्थी है, किन्तु वर्गीकरण कर दिया गया जिन में हम पितृ यज्ञ करते हैं हमारे घरों में पितृ अर्चना होते है उसे “महा आलय महालय” कहते है, आश्विन कृष्ण पक्ष में
रखना एक व्यवस्था है, देवताओं की पूजा तिथियां मासादि भिन्न है, कृष्ण जन्माष्टमी भाद्रपद में, दुर्गा पूजन आश्विन शुक्ल, चैत्र शुक्ल पक्ष में, देवशयनी, देवउठनी, रामनवमी, अक्षय तृतीया आदि अलग-अलग होते हैं। इन सबसे हटकर 15 दिनों को लगातार पितृपक्ष कहकर पितृ यज्ञ का एक पुनीत पक्ष ऋषियों ने बना दिया है किन्तु दुर्भाग्य है कि लोगों की धारणा इस समय शुभ कर्म न करने की ओर मोड़ दी गई, इसमें कपड़े, जूते, वाहन, गृह आदि खरीदने में अशुभ होने की आशंका करते हैं, यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है :-
“पुत्रानायुस्तथारोग्य मैश्वर्यमतुलं तथा । । प्राप्नोति पंचमे दत्वा श्राद्धं कामान् सुपुष्कलान्।। ”
पुत्र, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, अतुलनीय धन को पितृगण उन्हें प्रदान करते हैं जो पितृ पक्ष में प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करते है।
( जाबालि स्मृति नि.सि.)
श्राद्धों के अनेक भेद है, श्राद्ध के बिना यज्ञादि पूर्ण नहीं होते –
“यज्ञों द्वाहा प्रतिष्ठासुं मेखला बन्ध मोक्षयोः ।।
पुत्र जन्म वृषोत्सर्गे, वृद्धि श्राद्धं समाचरेत् ।।
(विष्णु पुराण)
जन्मन्यथोपनयने विवाहे पुत्रकस्य च। पितृन्नान्दी मुखान्नाम तर्पयेद् विधिपूर्वकम्।
(गोमिल)
राजाभिषेके बालान्न् भोजने वृद्धि संज्ञकान्। वनस्थाद्याश्रम् गच्छन् पूर्वेधूः सद्य एव वा । पितॄन् पूर्वोक्त विधिना तर्पेयत् कर्मसिद्धये ।।
(निर्णयसिंधू)
राजा का अभिषेक, बालकों का अन्न प्रासन्, यज्ञ, मंदिर आदि की प्रतिष्ठा इनमें श्राद्ध और तर्पण करने से कर्म की सिद्धि होती है। पितृ पक्ष में इन शुभ कर्मों को करने का कोई निषेध नहीं है किन्तु कुछ कर्म जैसे विवाह, गृह प्रवेश, मंदिर प्रतिष्ठा आदि सूर्य के दक्षिणायन और भगवान के शयन के कारण नहीं किये जाते, इसमें पितृ पक्ष का दोष नहीं हैं और न ही उसके कारण वर्जित हैं। पितृ पक्ष में तर्पण और श्राद्ध न करने से परिवार में अनेक प्रकार के कष्ट रोग, शोक आदि होते है, उसका कारण है आषाढ़ की पूर्णिमा से पांचवा पक्ष अर्थात् पितृ पक्ष में पितर अपने पुत्र, पौत्रादि से श्राद्ध एवं तर्पण की इच्छा रखते हैं।
” आषाढ़ी मवधिमकृत्वा पंचम् पक्षमाश्रिताः । काँक्षन्ति पितरः क्लीष्टा अन्नमप्यन्वहम्जलम् ।
(पृथ्वी चन्द्रोदये मनुः )
पन्द्रह दिन पितृ पक्ष में कुश, तिल और जल से प्रतिदिन पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करके जलदान करने से पूरे संवत्स तक (पूरे वर्ष भर ) किसी प्रकार का प्रेत, राक्षस, ग्रह आदि की पीड़ा, भय नहीं रहता और पितर तर्पण करने वाले की निरंतर रक्षा करते रहे।
प्रत्यहम् पार्वणश्राद्धम् कर्तव्यन्तुमहालये ।।
पितृम्यश्चजलम् देयम् तेन् संवत्सरम् शुभम्।।”
(श्राद्ध कल्प).
[04/10, 9:30 am] Amjd Rja Khan: यदि कोई मनुष्य पितृ पक्ष में तर्पण और श्राद्ध न कर सके तो केवल थोड़ा सा तिल पितरों का नाम लेकर पीपल वृक्ष के जड़ में डाल दे तो भी पितृ तृप्त हो जाते है यदि कोई यह भी न कर सके तो गायों को पास, पैरा देते समय यह कह दे कि यह मेरे पिता के लिए है यह मेरी माँ के लिए है तो भी पितर तृप्त हो जाते हैं। यदि मनुष्य शैय्या में पड़ा हुआ बीमार हो तो केवल अपने हाथों को ऊपर की ओर हिलाकर पितरों का स्मरण कर ले तो भी पितर वर्ष तक उसकी रक्षा करते है। पितृ पक्ष में दिया गया अन्न, जल, शनि की साढ़े साती, काल सर्प योग, दुष्ट ग्रहों का प्रकोप सबको नष्ट कर देता है।
” पितरौयत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहादऽपि । देयम् जलम् च तेषान्तु ग्रह दोषों विनश्यति ।। ”
इस तरह पितृ पक्ष में गया श्राद्ध और ब्रम्ह कापाली के पिण्ड देने के पश्चात् भी प्रतिदिन पितरों को कुश, तिल, जल से तर्प करना चाहिए क्योंकि गया श्राद्ध होने से उनसे हमारे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होते। जिनके घर पुरूष न हो, उनके यहाँ कुंवारी कन्याएं तथा विधवा स्त्री तर्पण कर सकती है। कल्याण सुख-समृद्धि की वृद्धि, रोगों के नाश, ग्रहों की शांति चाहने वाले लोगों को श्रद्धा पूर्वक यह पितृ पक्ष सम्पादित करना चाहिये। अतः परिवार के
हिन्दू धर्मशास्त्र और मान्यताओं के अनुसार जीवन में तीन ऋण मानव मात्र को चुकाना पड़ता है देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण जो जीवन भर उनकी आराधना साधना करते रहने से मिटता है। देव ऋण पूजा हवन इत्यादि करके तथा ऋषि ऋण ऋषि प्रणीत ग्रंथों का स्वाध्याय, पाठ, अनुशीलन आदि करके चुकाया जाता है। जहां तक देवता और पितरों के सम्बन्धों का प्रश्न है देवता “सम्बद्धानुबद्धी” है
अर्थात हम उनका यजन करते है तो वे हमारी रक्षा करते हैं और वांछित फल देते है “देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु नः ।। इष्टान्भोगान्हि नो देवा, दास्यन्ते यज्ञ भाविताः।। ”
(श्री मद् भागवत गीता 11-12/3) किन्तु पितर एकांगी स्नेहबद्ध होते हैं, पितरों का सीधा सम्बन्ध शरीर से, वंश से और परिवार के सुख दुःख से होता है, जैसे माँ यदि स्वयं भी बीमार हो और बालक बीमार हो तो उसका सारा ध्यान बालक की ओर होता है और वह अपने कष्टों का ध्यान न करते हुए पुत्र की रक्षा और कष्ट निवारण हेतु प्रयासरत रहती है, इसी भांति पितर कुल के सदस्यों की रक्षा, यश की वृद्धि, और परिवार के सुख-शांति हेतु आर्शीवाद देते हैं। और अपनी ओर से देव तुष्टि, ग्रह शांति का कार्य करते रहते हैं, इसलिये पितरों को “वसुरूदादित्य” की संज्ञा दी गई है। पिता- वसुरूप, पितामह रूद्र रूप, और प्रपितामह (परदादा) आदित्य (सूर्य) रूपों में वर्णित है।