“होली खेल री गोरी”
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डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
इस होली का संसार ही निराला है। यहां पर सदा कोकिलाएं क्रुजन करती है। यहां पर सदैव पारिजात पाटल, कचनार, कामिनी बेला के ही फूल खिला करते हैं, पर उनमें कांटे नहीं होते, मादकता होती है। विरहिणी रात भर जागा करती है। वियोगी रजनी भर उपधान के सहारे गिना करते हैं उनके नेत्रों में ही रात समा जाती है। इस – मदन- महोत्सव के जीवन में सौन्दर्य, माधुर्य, सौष्ठव, मंजुलता, मदिरता, मोहकता और मसृणता के सिवाय कुछ नहीं, जहां हमारी कामनाएं ही राज्य करती है। पथ है, उनमें भी गुलाब है, शैया है उसमें भी गुलाब है, और देह है उसमें भी गुलाब की गंध है। सारा संसार ही गुलाबमय है। जहां आंखे जाती है, वहां बेसुधि मस्ती छाई है। छेल-छबीले पलाश के फूलों तक में लाल जवानी उभर आई है। सारी प्रकृति का सौन्दर्य भी मधुयामिनी की जुन्हाई में नहीं समा रहा है। गगन-कुंज में चन्द्र और रजनी मिलते हैं। रजनी मुस्करा रही है, चन्दा हंस रहा है।
होलिका की लाल नीली लपटें धू-धू कर आकाश को छू रही है। गगन का चन्दा अलसाई आंखों से निहार रहा है। कुमुदिनियां भी तन्द्रा में अंगड़ाई ले रही है और कामिनियों के कलेवरों का क्या कहना ?
“मानव इस दिन पत्तों के मर्मर में आलिंगन के भाव देखता है, संध्या के अम्बर में अनुराग का अरूण विकास और अरूणिम उषा की रोली में उल्लास मिलता है। सरिता का कलकल प्रवाह मन को गुदगुदा रहा है और कोयल की कूक में तो वियोगिनी की तड़पन, प्रोषितपतिका की आकांक्षा और संयोगिनी का आह्लाद दिखता है। गुप्त जी की कोयल बोल उठती है –
“काली काली कोइल बोली, होली होली होली ! हंसकर लाल लाल होठों पर, हरियाली हिल डोली, फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की, पीली पीली चोली। होली होली होली ।।”
कण-कण में अनंग की लीला वासना का उन्माद, यौवन का प्रमाद ही दिखाई देता है। होली जवानी, मस्ती, प्रसन्नता और आनन्द का ही उत्सव है। जो बूढ़े हैं, मनहूस हैं, और हमेशा मर्सिया गाते हैं, यह उनका त्यौहार नहीं।
बरस भर का त्यौहार ठहरा! आज तो बूढ़े भी भंग की तरंग में जवानी की
याद कर लेते हैं।
जीवन में संघर्ष, ऊहापोह तो रहेंगे ही। दुःख-सुख की आंख मिचौनी कभी बंद नहीं होगी। इसीलिये दुःख में भी सुख और संतोष पा लेना चाहिए हम तो सदा प्रसन्न रहे और रहेंगे। भारतीयों के रोने गाने के नहीं हंसने- खेलने के उत्सव रहते हैं।
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आज से शताब्दियों पूर्व स्वर्णिम गुप्तकाल के मदन महोत्सव को कौन भूल सकता है ? जब बसंतपंचमी को राज उपवन में कामदेव की और पतिदेव की पूजा होती थी सुंदरियां जब अशोक वृक्ष पर पद स्पर्श के लिए रखती थी तब अशोक के फूल खिल उठते थे, और सब जनता अबीर, गुलाल, केसर और रंगवर्षा में सरोबार हो उठती थी। पिचकारियों से रस की धाराएं प्रवाहित होती थी। श्रृंगक जीवन रस बरसाते थे। वह था भारत का मदन महोत्सव जो एक माह तक बसंत पंचमी से रंगपंचमी तक समस्त उत्तरप्रदेश को सरोबार किए रहता था।
प्राचीन ब्रज की होली, राधा व श्याम की “होरी” तो आज भी मन को गुदगुदाती है। तन्वंगी बालाओं की चितवन से पांच नहीं, सहस्त्रों बाण छूट रहे हैं और बांके जवान घायल हो रहे हैं। रंग और अबीर के कर्दम में पैर फिसल पड़ते हैं। लज्जा और संकोच का तो पता ही नहीं है। छेल छबीले पुकारते हैं।
फागुन के दिन चार
होरी खेल री गोरी।”
और गोरियां “होरी खेलती है। रंग से नहाकर गोपियां गिड़गिड़ाती है।
“और रंग जिन डारौ
श्रंगी मैं तो रंग तिहारे।”
और इसी समय कोमलांगी विरहिणी कह उठती है –
“फागुन फगुआ बीत गए ऊधो हरि नहिं आए मोर।
अब की जे हरि मोर ऐहैं, रंग खेलब झकझोर ।।
कैसी करूण कामना है। फागुन बीत रहा है प्रिय श्याम न आये न आये । खैर अब आयेंगे तो झकझोर कर, परिप्लावित हो झूमकर खेलेंगी, बस उन्हें आने तो दो !
” जब प्रकृति नयनों में मलयानिल का कम्पन भरकर अधरों पर गुलाब का चुम्बन समेट कर अंग-अंग में अनंग का रंग भरकर गा रही है तब वियोगिनी कह पड़ती है
“रितु फागुन नियरानी, हमें कोई पिया से मिलावे।”
काश! उसके प्रियतम आ जाते। ब्रज की होली का वर्णन पद्माकर ने खूब किया, वैसे तो ब्रज की होली प्रसिद्ध ही है, फिर भी उनका होलिकोत्सव निराला है, मस्त करने वाला है। श्याम के साथ ब्रज बालाएं होली खेल रही है
“था अनुराग की फाग लखौ, जहां रागती राग किशोर किशोरी, त्यों पदमाकर घली घली, फिर लाल ही लाल गुलाल की झोरी । जैसी की तैसी रही पिचकी कर काहू न केसर रंग में बोरी, गोरिन के रंग भीजिंगो सांवरो सांवरे के रंग भींजी सु गोरी ।।”
इतना ही नहीं, ढीठ बालाएं आज उन्मत्त हो गई है। सब मिलकर श्याम को पकड़ लेती है और दुर्दशा कर डालती हैं। राधा तो लाज के कारण चुनरी की आड़ में हंसती रहती है।
” चन्द्र कला चुनि चूनरी चारू, दई पहिराय, सुनाय सुहोरी बेदी विशाखा रूचि पद्माकर अंजनि आजि समाज करोरी । लागि जबै ललिता पहिरावन, श्याम को कंचुकी केसर बोरी हेरि हरें मुसुकाइ रही, अंचरा मुख दै बृषभान किशोरी
फाग के भीर अभीरन पै. गहि गोविंद लै गयी भीतर गोरी भाई करी मन की मदुमाकर ऊपर नाई गुलाल की झोरी छीनि पितम्मर कम्मर सै, सुबिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी, नैन नचाय कयो मुसकाय, लला फिर अइयो खेलन होरी।”
नटखट श्याम अपनी इस दुर्दशा पर तो खीझे थे ही, ऊपर से मित्रों ने भी भाग्यवश रास्ते में एक होली खेलने वाली ब्रजबाला मिल ही तो गई। खूब हंसी की। श्याम ने सारी कसर निकाल ली। अकेली पा उसे अबीर से भर दिया। बिचारी घबरा कर भागी । उसने आंखों का अबीर धोया, साफ किया पर उनमें केवल अबीर तो भरा नहीं था, स्वयं श्याम समाये हुए थे, अतः पीड़ा क्या कम होती ?
“एकै संग धाए, नन्दलाल
औ गुलाल दोऊ दुगनि गये जू भरि आनंद मढै नहीं धोय धोय हारी पद्माकर तिहारी सोह अब तौ उपाय एकौ चित्त में चढ़े नहीं कैसी करौं कहां जाऊँ कासो कहाँ कौन सुने कोऊ तो निकासै जासों दरद बढ़े नहीं एरी मेरी बीर! जैसे तैसे इन आंखिन से कढिगो अबीर पै अहीर को कढ़े नहीं ।” –
क्या किया जाय, अहीर तो ऐसा है जो निकलने का नाम ही नहीं लेता। होली ही तो ठहरी, ब्रजबालाएं लज्जाहीन सी ही तो हो जाती है। जब मर्यादा की बात याद आती है तो लज्जा को ढूंढती फिरती है, देखिये –
“फहर गई धो फबै रंग के फुहारन में कैधो तराबोर भई अंतर अपीच में, कहै पद्याकर चुभी सी चारू चोबन में उधि गई धों कहूं अगर उलीच में। हाय! इन नैनन से निकर हमारी लाज
कित धौं हेरानी हुरिहान के बीच में, उलझ गई धों कहूं उड़ति अबीर रंग कचर गई धों कहूं केशर के कीच में ।।
अब होली खेलकर लौटी हुई एक ब्रजांगना अपनी चुनरी निचोड़ रही है। देखिये-
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“आई खेल होरी घरे नवल किशोरी कहूं बेरी गई रंगन सुगंधन झकोरे हैं, कहै पद्माकर इकंत चलि चौकी चढ़ि हारन के वारन से फंद बंद छोरे हैं, घांघरे की घूमनि सु उरुन दुबीच दाबि आगिही उतारि सुकुमारी मुख मोरे हैं, दंतन अधर दाबि दूबर भई सी चांपि चोबर पचौवर के चुनरी निचोरे है।”
जब लबालब यौवन लहरें मारता हो, जब भंग की तरंग में आनंद उदधि उमड़ रहा हो, जब होली के कण कण में हास विलास का मंत्र मिलता है, अनंग की रागिनी बजती है, और प्रेम की वारूणी प्रवाहित हो उठती है। लावण्य के लपटों में शलभ झुलसते हैं, नीली पीली होली की लपटें आकाश से लिपटती है और राग रंग, रस विलास की मधुरता से यौवन की अभिलाषा से, उल्लास की उर्मियों से सिक्त शराबोर हो रहा है। जीवन और अस्फुट बाणी गा रही है होली है। होली है !! हो ली है !!!
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा 35 ए. विद्यानगर, बिलासपुर (छ०ग०)
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