नव-संवत्सर सुखद हो
– डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
टेसू आम्र मंजरी तथा पीपल के नये पल्लव के साथ भारतीय नव संवत्सर वर्ष प्रतिपदा से पराभव नाम से शुरू हो रहा है। महाराष्ट्र में गुड़ी पाड़वा तथा सिंधी बंधुओं में चेट्री चंड नाम से नव-वर्ष का स्वागत हर्ष उल्लास तथा सामूहिक शोभा यात्रा, नर्तन-कीर्तन, बाजे-गाजे से होता है।
भारत वर्ष उत्सव उल्लास, आशा-आस्था का देश है, यहां निधन, पुण्य तिथि की जगह जयंती, जन्म दिवस मनाने की परंपरा चली आ रही है। काल-गणना में कल्प मन्वन्तर युग के पश्चात् संवत् का नाम आता है। ये संवत् महापुरूषों, सम्प्रदायों, राजाओं के नाम चलाये गये हैं। ज्योतिष के मनीषी पंडित रमाकांत मिश्र के अनुसार भारत में प्रचलित लगभग सोलह प्रकार के संवत् तो विदेशों में करीब अठारह प्रकार के संवत् की परम्परा प्रसिद्ध है। भारत में प्रचलित संवत् कल्पाव्द, सृष्टि संवत्, वामन संवत्, श्रीराम संवत्, श्रीकृष्ण संवत्, युधिष्ठिर बौद्ध, महावीर जैन, शंकराचार्य, विक्रमादित्य, शालिवाहन, कलचुरि बलमी, फसली, बंगला और हर्षाव्ध अधिक प्रसिद्ध है। उत्तरांचल में विक्रम संवत तो दक्षिण खण्ड में शक संवत प्रचलन में है। हम विक्रम संवत् 2077 का पर्व मना रहे हैं इसमें और ईसाब्द में लगभग सत्तावन वर्ष का अंतर है, विदेशों में प्रचलित अठारह संवत् में ईसा सन् और हिजरी अधिक महत्वपूर्ण है। वैसे चीनी, पारसी, तुर्की, इरानी, यूनानी, रोमन आदि अनेक संवतसर प्रसिद्ध है।
भारतीय धर्म-शास्त्र के अनुसार जो भी महाराजा अपना नया संवत् चलाना चाहता है, तो उसे अपने पूरे राज्य में जितने ऋणी हैं, उनके ऋण को वह स्वयं चुकायेगा, फिर उसके बाद संवत् चलाने की घोषणा करेगा। सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी प्रजा के ऋण को चुकाने का महत् कार्य किया था, इसीलिए अपने देश में विक्रम संवत् की सर्वाधिक महिमा है, इतना ही नहीं यह संवत् पंचांगों के साथ पूर्णतः वैज्ञानिक भी है। ईसाब्द के मूल में रोमन संवत् है, और ईसाब्द की गणना, दिनों के वर्ष मास आदि में कई बार परिवर्तन हुए- आज जो ईसा सन् का केलेण्डर प्रचलित है वह अनेक परिवर्तन और संशोधन का परिणाम है।
संवत्सर की उत्पत्ति वर्ष गणना के लिए होती है। ऋतु, मास, तिथि, आदि सब वर्ष के ही अंग हैं। वर्ष गणना के नव प्रकार है, तो मास गणना के चार प्रमुख भेद सौर, सावन, चांद और नक्षत्र हैं। महीनों के नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ आदि नक्षत्रों पर चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा आदि पर आधारित हैं, उसी प्रकार समस्त तिथियों का लिंगानुशासन अद्भुत है। हमारे यहां सब तिथियां प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी,
पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा, अमावस्या स्त्रीवाची अर्थात स्त्रीलिंग ही है। उसी प्रकार सारे ग्रह पृथ्वी के सिवाय पुल्लिंग है।
छत्रपति शिवाजी ने आततायियों को पराजित कर हिंदू पद पादशाही के नाम पर नवीन राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ होकर इतिहास की रचना की उसी राज्य की स्थापना की स्मृति में संपूर्ण महाराष्ट्र में गुड़ी पाड़वा महोत्सव मनाया जाता है। गैरिक ध्वज के साथ कलश और नवीन वस्त्र के साथ ध्वज स्तंभ गुड़ी की – स्थापना होती है, और प्रभु श्रीराम संवत्सर के साथ मिष्ठान्न सेवई तथा इमली रस का व्यंजन बनाया जाता है। ध्वज स्तंभ के साथ नीम और आम्र पल्लव भी गूंथा जाता है, तथा परिजनों को नीम का फल निबौरी तथा गुड़- कटु तथा मधुर फल का रस चखाया जाता है। सच है जीवन की पगडंडी में कटु, तिक, मधुर, कापाय, कसैले रस का स्वाद ही तो मिलता है।
गुड़ी पाड़वा में जो चरू या लुटिया रहती है वह उल्टी टंगी रहती है धारा को उलट दो तो – राधा बन जाती है, नर्तकी जब प्रभु के भजन गाकर नाचती है, तो वह उलट कर कीर्तन हो जाता है। संसार में भौतिक लालसा के पात्र को औंधा करने से अमृत मिलता है कबीर का हंस या जीव उर्ध्वमुखी होने पर ही – अमृतपान करता है-
“आकासे मुखी औंधा कुंआ, पाताले पनिहारि ।
ताका पानी को हंसा पीवे, यह तत कथहुं विचारि ॥
सौर मास का संबंध सूर्य से है, वैसे ही चंद्र मास का संबंध चंद्रमा से हैं, उदाहरण के लिए अमावस्या के पश्चात् चंद्रमा जब मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में प्रकट होकर प्रतिदिन एक-एक कला बढ़ता हुआ पंद्रहवें दिन चित्रा नक्षत्र में पूर्णता को प्राप्त करता है, तब वह मास चित्रा नक्षत्र के कारण चैत्र कहलाता है। जिस पक्ष में क्रमश: चंद्रमा शुक्लता को प्राप्त करता है वह शुक्ल पक्ष और जिसमें घटता हुआ कृष्णता अंधकार बढ़ता है उसे कृष्ण पक्ष कहा जाता है। मास का नाम उस नक्षत्र के अनुसार होता है जो महीने भर शाम से सुबह तक – दिखे, और जिसमें चंद्रमा पूर्णता प्राप्त करे। चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आषाढा, श्रवण, भाद्रपक्ष, अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा और फाल्गुनी नक्षत्रों के अनुसार ही क्रमशः चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन होते हैं।
एक सूर्योदय से दूसरे सूर्यादय तक का समय अहोरात्र कहलाता है इसका पहला भाग दिन व दूसरा भाग रात है “सुबह होती है शाम होती है जिंदगी यूं ही तमाम होती है।
नवरात्र महोत्सव का शुभारंभ वर्ष प्रतिपदा के दिन घट स्थापन से होता है। नव एक ओर शुभद संख्या वाचक विशेषण है, तो दूसरी ओर नवीनता का सूचक भी। एक वर्ष में चार नवरात्र होते हैं, किन्तु उसमें दो – शारदीय एवं वासंती नवरात्र अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। विक्रम संवत्सर का आरंभ भी वर्ष प्रतिपदा से होता है, अतः यह नवरात्र नवीन-नववर्ष का द्योतक है, जिसमें नव गौरी नव दुर्गा की आराधना अर्चना श्रेयस्कर है वेसे शारदीय तथा वासंती दोनों में पराशक्ति की पूजा-उपासना – साधना मंगलदायिनी है, परिणामदायिनी हैं, इस आराधना से अपरा जनित याने लौकिक अभिलाषा पूरी होती है। इसके अभाव में जीवन सृजन हीं नहीं, विकास भी विनष्ट हो जाता है, यह परा शक्ति परम रहस्यमयी है। नवरात्र में भगवती के सामने तेल का दीप अखंड सतत रूप से जलाना चाहिए। घी का दीप श्रीमद् भागवत में वर्जित है, उसी प्रकार कुमारी भोज भी देवी- पूजा का अंग है। कुमारी भोज के बिना देवी पूजा अधूरी रह जाती है।
अब नीम की कोमल कौंपल में जीरा, हींग, सैंधव, अजवाइन, कालीमिर्च मिला चबाकर कटुता को पी जावें, और नव संवत्सर के प्रथम सूर्य को प्रणाम करें, तथा विश्वास नामक संवत्सर के नवरात्र के पावन प्रारंभ में वैतरणी की व्यथा विस्तृत करके शुभाशंसा का वितरण करें। आप हम सबका जीवन शुभद हो, सुखद हो, मंगलप्रद हो, आपके परिजन पुरजन आपकी प्रगति देखकर प्रसन्न हों, पड़ोसी भी प्रमुदित हों, और शत्रु भी दोपहरी की छाया के समान आगोश में समेट लें, प्रभु का प्रसाद सदैव मिलता रहे। शास्त्र के अनुसार अक्षत का अष्टदल बनाकर कलश, गणेश पूजन के बाद ब्रम्हा जी का सोलह विधि से पूजन कर मकान ऊपर ध्वज लगायें, फिर घट स्थापना, देवी पूजन करें तथा संस्कारी कुलीन द्विज को भोजन से तृप्त करें। नववर्ष का स्वागत ध्वज- पताका से ही हो।
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
विद्यानगर, बिलासपुर छ.ग.