“नवरात्र”
(चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक)
डा.पालेश्वर प्रसाद शर्मा
चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के तो दिन नवरात्र कहलाते हैं। इस प्रकार एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं, इनमें चैत्र का नवरात्र ‘वासन्तिक नवरात्र और आश्विन का नवरात्र ‘शारदीय नवरात्र’ कहलाता है। इनमें आद्याशक्ति भगवती माँ दुर्गा की विशेष आराधना की जाती है।
पूजा-विधि – चैत्र शुल्क प्रतिपदा से पूजन प्रारंभ होता है “सम्मुखी” प्रतिपदा शुभ होती है अतः वहीं ग्राह्य है। अमायुक्त प्रतिपदा में पूजन नहीं करना चाहिये। सर्वप्रथम स्वयं नानादि से पवित्र हो, गोमय से पूजा-स्थान का लेपन कर उसे पवित्र कर लेना चाहिये । तत्पश्चात् घट स्थापन करने की विधि है। घट-स्थापन प्रातःकाल करना चाहिये। परंतु चित्रा या वैधृतियोग हो तो उस समय घट-स्थापना न कर मध्यान्ह में अभाजित आदि शुभ मुहूर्त में घट स्थापन करना उचित है।
यह नवरात्र व्रत स्त्री-पुरूष दोनों कर सकते हैं। यदि स्वयं न कर सके तो पति, पत्नी, पुत्र या ब्राम्हण को प्रतिनिधि बनाकर व्रत पूर्ण कराया जा सकता है। व्रत में उपवास, अयाचित (बिना मांगे प्राप्त भोजन), नक्त (रात में भोजन करना) एकमुक्त (एक बार भोजन करना) जो बन सके यथासामर्थ्य वह करें।
यदि नवरात्रों में घट स्थापन के बाद सूत (अशीष) हो जाय तो कोई दोष नहीं लगता, परंतु पहले हो जाय तो पूजनादि स्वयं न करें।
घट-स्थापन के लिये पवित्र मिट्टी से देवी का निर्माण करें, फिर उसमें जौ और गेहूं बोयें तथा उस पर यथाशक्ति मिट्टी, तांबे, चांदी या सोने का कलश स्थापित करें। यदि पूर्ण विधिपूर्वक करना हो तो पञ्चाङग पूजन गणेशाम्बिका, वरूण, पोडशमातृका, सप्तघृतमातृका, नवग्रह आदि देवों का पूजन) तथा पुण्याहवाचन ब्राम्हण द्वारा कराये अथवा स्वयं करें।
इसके बाद कलश पर देवी की मूर्ति स्थापित करें तथा उसका पोडशोचपारपूर्वक पूजन करें। तदन्तर श्रीदुर्गासप्तशती’- का सम्पूर्ण अथवा साधारण पाठ भी करने की विधि है। पाठ की पूर्णाहुति के दिन दशांश हवन अथवा दशांश पाठ करना चाहिये।
दीपक-स्थापन पूजा के समय घृत का दीपक भी जलाना चाहिये तथा उसकी गन्ध, अक्षत, पुष्पा आदि से पूजा करे। दीपक- स्थापन का मन्त्र इस प्रकार है-
भो दीप ब्रम्हरूपस्त्वं ह्यन्धकारनिवारक ।
इमं मया कृतां पूजां गृहस्तेजः प्रवर्धय ।।
कुछ लोग अपने घरों मे ं दीवार पर अथवा काठपट्टिका पर अयाकिड्स चित्र बनाकर इस चित्र की तथा घृत दीपक द्वारा अग्नि से प्रज्वलित ज्योति की पूजा अष्टमी अथवा नवमीं तक करते हैं।
कुमारी पूजन नवरात्र व्रत का अनिवार्य अंग है। कुमारिकाएँ जगज्जननी जगदम्बा का प्रत्यक्ष विग्रह है। सामर्थ्य हो तो नौ दिन तक नौ, अन्यथा सात, पांच, तीन या एक कन्या को देवी मानकर पूजा करके भोजन कराना चाहिये। तथा ब्राम्हण कन्या को प्रशस्त माना गया है। आसन बिछाकर गणेश, वटुक तथा कुमारियों को एक पंक्ति में बिठाकर पहले ‘ॐ गं गणपतये नमः’ से गणेश जी का पञ्चोपचार- पूजन करें, फिर ऊँ गं गणपतये नमः’ से बटुक का तथा ‘ऊं कुमार्यै नम-‘ से कुमारियों का पच्चेपचार पूजन करें। इसके बाद हाथ में पुष्प लेकर अधोलिखित मन्त्र से कुमारियों की प्रार्थना करें-
मन्त्राक्षरमवयीं नवमी मातृणां रूपयारिणीम्। नवदुर्गात्मकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम्।। जगत्पूज्ये जगद्वन्ये सर्वशक्तिरूपरूपिणि। पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तु ते।।
कही-कहीं अष्टमी या नवमी के दिन कड़ाही पूजा की परम्परा भी है। कड़ाही में हलवा बनाकर उसे देवी जी की प्रतिमा के सम्मुख रखा जाता है। तत्पश्चात् चमचे और कड़ाही में मौली बांधकर “ऊं अन्नपूर्णायै नमः ” इस नाम मंत्र से कड़ाही का पञ्चोपचार पूजन भी किया जाता है। तदन्तर थोड़ा-सा हलवा कड़ाही से निकालकर देवी माँ को नैवेद्य लगाया जाता है। उसके बाद कुमारी बालिकाओं को भोजन कराकर उन्हें यथाशक्ति वस्त्राभूशण, दक्षिणादि देने का विधान है।
विसर्जन
नौ रात्रि व्यतीत होने पर दसवें दिन विसर्जन करना चाहिये। विसर्जन से पूर्व भगवती दुर्गा का गंध, अक्षत, पुष्प आदि से उत्तर- पूजनकर निम्र प्रार्थना करनी चाहिये-
रूपं देहि यशो देहि भाग्यं भगवति देहि में।
पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान् कामांश्च देहि में।। महिषधि महामायं चामुचडे मुण्डमालिनि।
आयुरारोग्यमै देहि देविते।।
इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद हाथ में अक्षत एवं पुष्प लेकर भगवती का निम्न मन्त्र से विसर्जन करना चाहिये –
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठे स्वस्थानं परमेश्वरि ।
पूजाराधनकाले च पुनरागमनाय च।।
शक्तिवर की उपासना – चैत्र नवरात्र में शक्ति के साथ शक्तिघर की उपासना की जाती है। एक ओर जहा देवीभागवत, कालिकापुराण और मार्कण्डेयपुराण का पाठ होता है, वहीं दूसरी ओर श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्धाल्मीकीय रामायण एवं अध्यात्मरामायण का भी पाठ होता है। इसलिये यह नवरात्र देवी-नवरात्र के साथ-साथ राम-नवरात्र के नाम से भी प्रसिद्ध है।“
श्रीरामवनमीव्रत एवं पूजन”
चैत्र शुक्ल नवमी को ‘श्रीरामनवमी’ का व्रत होता है। यह व्रत मध्याहव्यापिनी दशमीविद्धा नवमी को करना चाहिये।
श्रीरामनवमीं के दिन प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपने घर के उत्तर भाग में एक सुन्दर मण्डप बना लें। मण्डप के पूर्वद्वार पर शंख, चक्र तथा श्री हनुमानजी की स्थापना करें, दक्षिणद्वार पर बाण, शार्डधनुष तथा श्री गरुड़जी की, पश्चिमद्वार पर गदा, खड्ग और श्री अंगदजी की एवं उत्तर द्वार पर पद्य, स्वास्तिक और श्रीनीलजी की स्थापना करें। बीच में चार हाथ के विस्तार की वेदिका होनी चाहिये, जिसमें सुन्दर वितान एवं सुन्दर तोरण लगे हों।
इस प्रकार तैयार किये गये मण्डप के मध्यम में परिकरों सहित भगवान् श्री सीताराम को प्रतिष्ठित कर विविध उपचारों से
यथाविधि पूजन करें।
तदन्तर निम्न मन्त्र से भगवान् की आरती करनी चाहिये-
मङ्गलार्थ महीपाल नीराजनमिदं हरे ।
संगृहाण जगन्नाथ रामचन्द नमोऽस्तु ते ।।
ॐ परिकरसहिताय श्रीसीतारामचन्द्राय कर्पूरारार्तिक्यं समर्पयामि ।
हे पृथ्वी पालक भगवान् श्री रामचन्द्र ! आपके सर्वविध मण्डल के लिये यह आरती है। हे जगन्नाथ ! इसे आप स्वीकार करें । आपको प्रणाम हैं।
उपर्युक्त श्लोक पढ़कर किसी शुद्ध पात्र में कपूर तथा (एक या पांच अथवा ग्यारह) घी की बत्ती जलाकर परिकर सहित भगवान् श्री सीताराम जी की आरती करनी चाहिये।
पुष्पांजलि प्रदक्षिणा एवं प्रणाम अंजली में पुष्प लेकर निम्न लोक पढ़ना चाहिये-
नमो देवाधिदेवाय रघुनाथाय शाडिणे ।
चिन्मयानन्तरूपाय सीतायाः पतये नमः ।।
ऊं परिकरसहिताय श्रीसीतारामचन्द्राय पुष्पांजलिं समर्पयापि ।।
‘देवों के देव, शार्ङ्गधनुर्धर, चिन्मय, अनन्त रूप धारा करने वाले, सीतापति भगवान् श्री रघुनाथ जी को बारम्बार प्रणाम है।’ पुष्पार्पण करके निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए प्रदक्षिणा करनी चाहिये-
यानि कानि च पापानि ब्रह्माहत्यादिकानि च ।
तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणपदे पदे ।।
‘ब्रम्हहत्या आदि जितने भी पाप हैं, वे सभी प्रदक्षिणा के पद-पद पर निःशेष हो जाते हैं।’
प्रदक्षिणा करके भगवान् श्रीसीताराम को प्रणाम करना चाहिये एवं उनकी प्रसन्नता प्राप्ति के लिये कातर याचना करनी चाहिए। मन्दिरों में भी भगवान् को पञ्चामृतस्नान, यथाविधि पूजन तथा पंजीरी और फल का भोग लगाकर मध्यान्हकाल में (बारह बजे) विशेष आरती एवं पुष्पांजलि आदि करने की परम्परा है। आरती के अनन्तर भक्तों को पञ्चामृत, पंजीरी का प्रसाद दिया जाता है।
“गंगा दशहरा”
(ज्येष्ठ शुक्ल दशमी)
हे मातु गंगे देवताओं और राक्षसों से वन्दित आपके दिव्य चरण कमलों में नमस्कार करता हूँ, जो मनुष्यों को नित्य ही उनके
भावानुसार मुक्ति और मुक्ति प्रदान करते हैं। गंगाजी देवनदी है, वे मनुष्य मात्र के कल्याण के लिये धरती पर आयीं, धरती पर उनका अवतरण ज्येष्ठ शुक्लपक्ष की दशमी को हुआ। यह तिथि उनके नाम पर गंगा दशहरा के नाम से परसिद्ध हुई।
इस तिथि को गंगा खान एवं श्रीगंगाजी के पूजन से दस प्रकार के पापों (तीन कायकि, चार वाचिक तथा तीन मानसिक) का नाम होता है। इसीलिये इसे दशहरा कहा गया है
इस दिन गंगाजी में अथवा सामर्थ्य न हो तो समीप की किसी पवित्र नदी या सरोवर के जल में स्नान कर अभयमुद्रायुक् मकरवाहिनी गंगाजी का ध्यान करें और निम्न मन्त्र आवाहनादि पोडशेपचार पूजन करें-
“ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरा गंगायै नमः ।
उक्त मंत्र में ‘नमः’ के स्थान पर ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग करके हवन भी करना चाहिये। तत्पश्चात् ‘ऊं नमो भगवति ऐं ह्रीं श्रीं (वाक् काम मायामयि) लिलि हिलि मिलि गंगे मां पावय स्वाहा’ इस मन्त्र से पांच पुष्पांजलि अर्पित करके गंगा के उत्पत्ति स्थान हिमालय एवं उन्हें पृथ्वी पर लाने वाले राजा भगीरथ का नाम मन्त्र से पूजन करना चाहिये। पूजा में दस प्रकार के पुष्प, दशाड धूप, दस दीपक, दस प्रकार के नवैद्य, दस ताम्बूल एवं दस फल होने चाहिये। दक्षिणा भी दस ब्राम्हणों को देनी चाहिये, किन्तु उन्हें दान में दिये जाने वाले यव (जी) और तिल सोलह-सोलह मुट्ठी होने चाहिये ।
भगवती गंगाजी सर्वपापहारिणी है। अतः इस प्रकार के पापों की निवृत्ति के लिये सभी वस्तुएं दस की संख्या में ही निवेदित की जाती है। स्नान करते समय गोते भी दस बार लगाये जाते हैं। इस दिन सत्तू का भी दान किया जाता है। इस दिन गंगावतरण की कथान सुनने का विधान है।
<
“निर्जला एकादशी”(
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी )
ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘निर्जला एकादशी’ कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परंतु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार अधिमास सहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।
(निर्जला-त्र करने वाले को अपवित्र अवस्था में आचमन के सिवा बिन्दु मात्र भी जल ग्रहण नहीं करना चाहिये। यदि किसी प्रकार जल उपयोग में ले लिया जाये तो व्रत भंग हो जाता है)
निर्जला एकादशी को सम्पूर्ण दिन-रात निर्जल व्रत रहकर द्वादशी को प्रातः स्नान करना चाहिये तथा सामर्थ्य के अनुसार सुवर्ण और जलयुक्त कलश का दान करना चाहिये। इसके अनन्तर व्रत का पारायण कर प्रसाद ग्रहण करना चाहिये ।
कथा पाण्डवों में भीमसेन शारीरिक शक्ति में सबसे बढ़-चढ़कर थे, उनके उदर में वृक नाम की अग्रि भी इसीलिये उन्हें वृकोदर भी कहा जाता है । वे जन्मजात शक्तिशाली तो थे ही, नागलोक में जाकर यहां के दस कुण्डों का रस पी लेने से उनमें दस हजार हाथियों के समान शक्ति हो गयी थी। इस रसपार के प्रभाव से उनकी भोजन पचाने की क्षमता और भूख भी बढ़ गयी थी। सभी पाण्डव तथा द्रौपदी एकादशियों का व्रत करते थे, परन्तु भीम के लिये एकादशीव्रत दुष्कर थे। अतः व्यासजी ने उनसे ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत निर्जल रहते हुए करने को कहा तथा बताया कि इसके प्रभाव से तुम्हें वर्ष भर की एकादशी के बराबर फल प्राप्त होगा। व्यास जी के आदेशानुसार भीमसेन ने इस एकादशी का व्रत किया। इसलिये यह एकादशी “भीमसेनी एकादशी के नाम से भी जानी जाती है।
वैशा
ज्येष्ठ
चैत्र
वरूथिनी
पुत्रदा
पपमोचनी
निर्जला
आपात
श्रावण
भाद्रपद
आश्विन
*********************************
****छत्तीसगढ़ का एक ऐतिहासिक धार्मिक पर्यटन स्थल मल्हार (परिचय)********
*डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा*
मल्हार नगर मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में अक्षांश 21.90 उत्तर तथा देशांतर 82. 80 पूर्व में बिलासपुर से 32 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिलासपुर से रायगढ़ जाने वाली सड़क पर 18 कि.मी. दूर मस्तूरी है। वहाँ से मल्हार 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
मल्हार से प्राप्त कल्चुरि नरेश पृथ्वी देव द्वितीय के कल्चुरि सम्वत् 915 (1163 ई.) के शिलालेख में मल्हार को प्राचीन नाम “मल्लाल” दिया गया है। वहीं प्राप्त कल्चुरि संवत् 919 (1167 ई.) के अन्य शिलालेख में इसे “मल्लालपत्तन” कहा गया है। जिससे इसके व्यापारिक महत्व का पता चलता है। “मल्लाला संभवतः मल्लारि से बना, जो भगवान शिव का एक नाम है। पुराणों में मल्लालासुर नामक असुर का नाम मिला है। उसके नाशक को “मल्लारि” कहा गया है। प्राचीन दक्षिण कोसल क्षेत्र में शिव की पूजा के प्रचलन के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। मल्लारि एवं मल्हा (आधुनिक नाम) हुए।
पूर्वी महाकासेल के रतनपुर वंशी कल्चुरियों के शासनकाल में लगभग 10 वर्गमील के क्षेत्र में इस नगर का विस्तार था। प्राचीन मल्लालपत्तन तीन नदियों से घिरा था। उसके पश्चिम में अरपा, पूर्व में लीलागर और दक्षिण में शिवनाथ नदी है। डॉ. एस. के. पाण्डेय के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम “शरभपुर” था। शरभपुरीय राज्यवंश के अनेक अभिलेखों में शरभपुर नाम मिला है।
मंदिर
कल्चुरि-काल के शिलालेख और ताम्रपत्र के अनुसार जाजल्लदेव द्वितीय के शासनकाल में कल्चुरि सम्वत् 919 (सन् 1167 ई.) में गंगाधर ब्राम्हण मंत्री के पुत्र सोमराज द्वारा केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया गया है।
मल्हार गांव की पूर्व दिशा में डिडिनेश्वरी देवी का मंदिर है। “डिडिनदाई नाम से अभिहित मूर्ति जो जनश्रुति के अनुसा मल्हार के कल्चुरि शासकों की कुलदेवी कही जा सकती है, अपने आराध्य शिव की अर्चना हेतु तपस्यारत है।
स्थानीय बस स्टेण्ड व विश्रामगृह के पास केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित देऊर मंदिर है। टीके के रूप में परिवर्तित हो चुके मंदिर की सफाई का कार्य सन् 1969 से 1982 तक भारतीय परातत्व सर्वेक्षण विभाग के स्थानीय अधिकारियां द्वारा सम्पन्न कराया गया। टीले की सफाई से मूल मंदिर का आकार स्पष्ट होने के साथ-साथ मंदिर के अधोभाग में दबी हुई कलाकृतियाँ तथा अलंकृत स्तम्भ खण्ड भी प्राप्त हुए हैं। प्राप्त पुरावशेषों से प्रमाणित होता है, कि यह पश्चिमाभिमुखी शिव मंदिर रहा है। मंदिर का निर्माणण विशाल शिलाखण्डों को तराश कर किया गया है। यह मंदिर के धरातल पर क्षीण (समानान्तर ) आयताकार निर्मित है। मंदिर की चतुर्दिक भित्तियों में कीर्तिमुख, चैत्यगवाक्ष, भारवाहक पुष्पीय तथा ज्यामितीनय आकृतियों, मकर अलंकरण तथा देवी आकृतियाँ गड़ी हैं।
मूर्तिया (वैष्णव)
मल्हार में वैष्णव धर्म से संबंधित विभिन्न मूर्तियाँ प्राप्त हैं, जिसमें ईसा पूर्व दूसरी शती की विष्णु प्रतिमा प्रमुख है। इसके अतिरिक्त यहाँ चर्तुभुजी विष्णु, शेषशायी विष्णु, गरूडासीन विष्णु, लक्ष्मीनारायण, वेणुवादक गोपाल, नृसिंह और गरुड़ की परिभाषा भी प्राप्त हुई है।
शैव प्रतिमाएँ
मल्हार में विभिन्न शैव प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई हैं, जिसमें अर्धनारीश्वर, शिव, चतुर्भुजीशिव, दसभुजी रौद्ररूपी नटराज, शिव- पार्वती, उमा-महेश्वर, नंदी पर सवार शिव, शिव की खंडि प्रतिमा एवं अन्य प्रतिमाएँ प्रमुख हैं।
देवी प्रतिमाएँ
यहाँ पर लक्ष्मी, पार्वती, वैष्णवी, सरस्वती, दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, अष्टभुजी चामुण्डा (कंकाली), यक्षिणी प्रतिमा, गंगा यमुना की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं।
विविध प्रतिमाएँ
मल्हार में भिन्न-भिन्न देवताओं की भी प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, जिनमें सूर्य प्रतिमाएँ, हरिहरहिरण्यगर्भ सूर्य तथा शिव की समन्वित प्रतिमाएँ, नाग-नागिन की प्रतिमाएँ, हनुमान, शालमंजिका, मिथुन दृश्य, गज, गश्व का अंकन मिलता है।
जैन प्रतिमाएँ
बुढीखार ग्राम के पास जैन संप्रदाय से संबंधित जिन प्रतिमाओं का सुन्दर संग्रह है। यहीं पर जैन तीर्थंकरों की आसनस्य और कामोत्सर्ग मुद्रा में कतिपय प्रतिमाओं का सुन्दर संग्रह है। इसके सिवाय मल्हार ग्राम के कतिपय भवनों, पीपलचौरा, नंदमहल में जिन- प्रतिमाओं का संग्रह है।
जैन धर्म संबंधी निम्न प्रतिमाएं मल्हार में प्राप्त हुई है। सुपार्श्वनाथ, ऋषभनाथ, संभवनाथ की प्रतिमाएँ मिली हैं।
बौद्ध प्रतिमाएँ
ईसा 7 वीं, से 10 वीं शती के बीच मल्हार और उसके आसपास के भू-भाग के बौद्ध स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। इस काल की प्रमुख बौद्ध प्रतिमाओं में बुद्ध, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौद्ध देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ बनी मल्हार उत्खनन में प्राप्त बौद्ध देवता ‘हेवज्र’ की प्रतिमा पक्की ईंटों से निर्मित एक चबूतरे पर प्रतिष्ठापित मिली। ईसा 6 वी शती यहां तांत्रिक बौद्ध धर्म वज्रयान का प्रचुर विकास हुआ, जिसके स्पष्ट संकेत उत्खनन से प्राप्त बीऋ चैत्य तथा विहारों से मिलता है। यहाँ की प्रमुख बौद्ध प्रतिमाएँ निम्न हैं:-
भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा, बोधिसत्व की प्रतिमा, हेवज्र की प्रतिमा, ध्यानी बुद्ध की प्रतिमा, बौद्ध जन्म से संबंधित फलक, पद्मपाणि अवलोकितेश्वर की प्रतिमा, तारा की प्रतिमा आदि-आदि।
संग्रहालय की प्रतिमाएँ
मल्हार के उत्कृष्ट कलावशेषों को ध्यान में रखते हुए उन्हें उचित संरक्षण प्रदान करने हेतु शासन के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने एक संग्रहालय की स्थापना मल्हार में की है। यद्यपि इस स्थानीय संग्रहालय के प्रांगण में बहुसंख्यक प्रतिमाएं, शिलापट्ट द्वारा स्तम्भ तथा कलाकृतियाँ संग्रहित हैं, जिनकी समग्र रूप से यहाँ विवेचना संभव नहीं है, तथापि संग्रहालय की प्रमुख प्रतिमाओं का विवरण
सग्रहालय में स्कंदमाता अभिलिखित चतुर्भुजी विष्णु प्रतिमा, शैल प्रतिमाएँ (शिव के सभी रूपों की), नटराज, उमा-महेश्वर, कापालिक, शिव, प्रणय मूर्ति, कल्याण सुन्दर, अष्टभुजी, शिव, गणेश प्रतिमाएँ, नृत्य, गणेश, हेरम्ब ( पंचमुखी गणेश), गणराज, कार्तिकेय, नंदी आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं।
स्तभ खण्ड
वैसे तो मल्हार में अनेक अलंकृत स्तंभखण्ड प्राप्त हुए हैं। परंतु जो अत्यधिक महत्वपूर्ण है उनका विवरण निम्नानुसार है-
पाँचवीं शती का एक अलंकृत स्तम्भ है, जिस पर विविध जातक कथाओं का अंकन है। दूसरे एक अलंकृत स्तम्भ पर लताओं का मनोरम चित्रण है, इसका समय पांचवी शती है। छठवी शती का एक द्वार स्तम्भ है, जिस पर कीर्तिमुख व लतावल्लरी का अंकन है। पांचवी शती के एक अलंकृत स्तम्भ के भाग में कच्छप नामक तथा अलूक जातक कथाओं का अंकन है।
सिक्के और सीलें
मल्हार के आसपास के भू-भग से कुछ स्वर्ण मुद्राएं सन् 1942 में चकरबेड़ा से प्राप्त हुई थीं। जिनमें दो भुजाओं को प्रकाश में लाया जा सका। ये मुद्राएँ रोमन शासकों से संबंधित है। प्राचीन समय में चकरबेड़ा, बूढ़ीखार, जैतपुर ग्राम मल्हार सीमा के अन्तर्गत थे । यहाँ तांबे के सिक्के मिले हैं। पहली दूसरी शती ईसा पूर्व के आहत सिक्के भी मिले हैं। 1952 में बूढ़ीखार, जैतपुर के पूर्व पश्चिम भाग में एक नहर की खुदाई से ताम्रपत्र, लेख, सिक्के, मनके, मृद्भाण्ड, शंख, धातु के पुराने बर्तन मिले। विद्वानों ने कुछ सिक्कों को महेन्द्रादित्य का बताया है। शरभपुरी शासक प्रसन्न मात्र द्वारा प्रदत्त ग्राम दान संबंधी विवरण मिलता है। कुषाणकालीन राजा विकेडफिस का सिक्का प्रो. के. डी. बाजपेई को मल्हार के समीप कोसला ग्राम से प्राप्त हुआ था।
सागर विश्वविद्यालय पुरातत्व विभाग द्वारा मल्हार में कराये गये सर्वेक्षण और उत्खनन से निम्न लिखित पकी मिट्टी की मृण्मुद्राएँ प्रकाश मे आई जो निम्न हैं-
प्राचीन गढ़ी क्षेत्र के सर्वेक्षण से पक्की मिट्टी की एक गोलाकार मुहर प्राप्त हुई है। जिसके ऊपरी भाग के मध्य में सातवाहनों के राज्य चिन्ह (हाथी) का सुन्दर अंकन है, गोलाकार किनारों पर सातवाहनकालीन ब्राम्हमी लिपि में “वेदसिरिस’ (वेदश्री) नामक शासक का नामोउल्लेख है । उत्खनन से प्राप्त एक कुषाणकालीन ब्राम्ही लिपि में “गामसकोसलिया” (कोसलीय ग्राम) का उल्लेख है। इसके मध्य भाग में पीपल वृक्ष का सुन्दर अंकन है।
उत्खनन से प्राप्त एक मुहर पर “महेन्द्रस्य” लिखा है। इस शासक का नाम सर्वप्रथम समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है, जिसने दक्षिणापथ विजय के समय दक्षिण कोसल के भूभाग पर स्थानीय शासक के रूप में राजा महेन्द्र को पराजित किया। यह मृण्मुद्रा विशेष ऐतिहासिक महत्व की है। इस मुद्रा के आधार पर इस मत की पुष्टि होती है, कि दक्षिण कोसल में जिस राजा महेन्द्र का शासन था, वह समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान के समय इस क्षेत्र का स्थानीय शासक था।
एक अंडाकर मुहर के ऊपर तीन स्थानों में “श्री कल्याणार्चि” लेख है। यह मृण्मुद्रा लगभग 7 वीं शती की है। इसका निर्माण धार्मिक भावना से किया गया प्रतीत होता है, जिसे बौद्ध धर्मानुयायी गले में धारण करे होंगे। इसके मध्य भाग में छेद है, जिसके मध्य भाग में धागा डालकर गले में धारण किया जा सकता था।एक अन्य मिट्टी की नांव के टुकड़े पर ब्राम्ही लिपि में “महास्वामी” लिखा हुआ मिला है। संभवः यह उक्त बर्तन के निर्माता का नाम है