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November 21, 2024 6:05 pm

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रस घोले रे माघ फगुनवा . .. …. . जब फागुन तिहार आथे त आमा, परसा, सेमर के फूल अऊ कोइली के कुहुक….. बइहा बरोबर चारों खूंट होले के हुडदंग बगर जाथे। मन मतंग हो जाथे ,तन कसमसाय लागथे, हमर छत्तीसगढ़ म सबले बड़का तिहार होले..

: रस घोले रे माघ फगुनवा

जब फागुन तिहार आथे त आमा, परसा, सेमर के फूल अऊ कोइली के कुहुक….. बइहा बरोबर चारों खूंट होले के हुडदंग बगर जाथे। मन मतंग हो जाथे। तन कसमसाय लागथे। हमर छत्तीसगढ़ म सबले बड़का तिहार होले…. होरी ए……। ए तिहार में लंगोटी घलाय फाग मनाथे, गरीब कमिया, कमेलिन, धनवान सब्बों के एक ठन तिहार- जेमा रंग हे, भंग हे, तरंग हे, नंग धडंग हे धुर्रा संग हे, ढोल मिरदंग हे, भइया भउजी के हुरदंग हे, रंग बिरंग हे, बुढ़वा मन देख देख के दंग हैं।

मन डोले रे माघ फगुनवा लछमन मस्तूरिहा गावत हे, त पंडित रविशंकर सुकुल घलाय गीत ढीलत हे… परसा फूलिस डोंगरी खार, आमा मउरिस डारे डार, सरर सरर सर पवन बहय, टप टप टप मउहा टपकस, अइसन गीत सुनाइस कोइली- पवन घलो बइहागे…. रूख राई दीखंय सब चिक्कन चिक्कन, पीपर के पाना खेलय अटकन बटकन रूख ठुठुवा घलो ह हरियागे बसंत ये दे भुइयों मे आगे।

होरी के तिहार थोरकन अलगे किसम के तिहार ए। अइसन तिहार ए के वोमा मरजाद ल पठेरा म रख के मनखे मन गारी गिल्ला गायें, जोर जोर से नरियार्थे चिल्लाथे होरी रे….हो….री… हे…ऽऽ । दे दे बलौआ राधे को, राधे बिन होरी न होय। कुहू पता नई के होरी बर राधा ल नेवता देहे के फाग गीत कब ले चले आत हे। वइसे फाग गीत बिरिज (ब्रज) अवधि ले छत्तीसगढ़ म आईस, तेकरे बर राधा के सुरता करयें। बइसे राधा सिंगार के जवानी के, परेम के सुघराई के नाव ए। वैद मन राधा हरदी (हल्दी) ल कथें। हरदी चुपरे ले, उबटन, चिक्सा लगाये ले चेहरा के रंग फरियाथे, रूप रंग उजरथे। झाई के ओखद ए हरदी हर। कवि बिहारी ह लिखे हे के राधा याने हरदी लगाये ले देंह के रंग ह चिकनाथे, सफ्फा होथे, तेकरे बर बिहाव म कइना-बर दुन्नो ल हरदी चुपर चुपरके हरदियाही मनायें- जय हो राधे-राधे… होरी म मीरा घलाव राधा बन जाथे, अउ गीत गोविन्द ह गारी-गीत, फाग, फगुवा, गौरा गीत….. ददरिया लहुट जायेथे…।

हे भगवान! अइसन गांव म जनम देबे जिहाँ नदिया रहय, बैद रहय, अउ उधार देवड्या महाजन- साहूकार रहय। बेलासपुर म अरपा नदिया हे, उधार बाढ़ी बर सेठ साहूकार हे, फेर अच्छा बैद मन नंदा गईन हैं। हाहो! देवेन्द्र सत्यार्थी देस भर गिंजर के लोक-गीत सकेले रहिस। छत्तीसगढ़ म गौरेला पेण्ड्रा कती के लोग गीत लिखे हे…. बइहाँ हो जा रे सहाय…. डोले पुरवाई मजा मार ले रे SSS तुरते किसान के नियाव करा रे ऽऽ नाही मिले रे उधार, नाहीं मिले रे उधार…। चंदा सुरूज ल आगी लगे रे…. चंदा सुरूज ल आगी लगे रे SSS होरी के तिहार अउ मंद अउ सिकार बर पइसा नइ ए…। बड़का दुख ए भारी कलकुश ए हर!

लइका पिचका मन रंग खेले में मताय रथें। त चेलिक मोटियारी मन थोर-थोर मंद पीके सिकार खाके माते रथें, मदमस्ती, नसा बेफिकरी, रंग म गोंड मूड ले नहाय, धुर्रा म सनाय छुट्टा सांड़ साहीं गिंजरथ हैं। लकड़ी चोरा के होरी बारत हैं, आन-तान बकत हैं, मुंह मू धरखन नई ए- एकरे बर होरी के अंडा डांग बस्ती बाहिर खेत खार म, दइहान मसान म गाउथे, अउ बस्ती भीतरी गारी बके के, होरी बारे के रिवाज नई राहय।

जब बसंत पंचमी आथे त दुरिहा खार बखार म अंडा के पेड़, कौड़ी अउ ताम के पइसा, एक गांठ हरदी खन-कोड़ के गडिया देथें बस रसिक, कवि मन अंडा देखिन, आमा अमराई म मौर देखिन, पीपर के नवा पाना देखिन, बोहर ल उल्होये पाईन, परसा के रूख म आगी अंगरा देखिन त बसंती बैहर म मन बइहाय लागथे, मन मताय लागथे। जेकर मन भौरा सही नई गुनगुनाय मतंग सही नई झुमय, तउन हर मनहूस मनखे ए, माटी खैता मूरदा ए, अलोना सिट्ठा सुतनिंदहा ए।

2.कथें, कामदेव के पोहरा म पांच फूल के बात हांवय- ए पांच फूल अशोक, आमा के मौर, कमल, नील कमल, अउ चमेली- ये पांच बान खांके बड़े बड़े विश्वामित्र खसल-फिसल गईन तब आजकाल के मालपुआ, मलाई, खवैया महंत मन के का गोठियाहा! तभो ले मनखे मरजाद म रइही त समाज-संसार चलही।

होरी के तिहार- रंग गुलाल के तिहार ए, फेर आजकाल चीकट, वारनिस लगात हैं, कु-कुरथा-पेंट ला चीर देथे… अतका हुरदंग के भला मानुस घर ले बाहिर निकरे बर डेराथें। सरकार घलाय बइहा जाथे। जुन्ना मान- मरजाद ल बिसार देथे… रसिक मन बड़बडाथे… फागुन की रितु नियरानी… कोई हमें पिया से मिलावे।

खार डोंगरी म साजा अउ सागौन के बिहाव होगे, अओ रानी- अउ बपुरा तेंदू एसों कुंवारा रहिगे… ( तेहूं के बिहाव चिरौंजी के रूख ले होथे।… साजे संगोना के होगे बिहाव… तेदूं रहगो कंवारो रनियां आसो के साल….।

जड़, पेड़, रूख, नार बियार म जीत हे, परान हे, दुख सुख सब बोहू मन ला जनार्थथे… मनखे के गीत पिरीत, हितू-हितवा- ये आमा, अमली, नीम, पीपर, बर, बमरी हैं, फेर होरी म थेई रूख राई ल काट-बोंग के सत्यानास करते हैं… तेकेरे बर आन-तान पानी बरसत है। फागुन म सावन के सुरता आत है।

फागुन तिहार आगे, फेर बाबू के दा कहाँ बिलमगे? फागुन फगुआ बीत गे, उधो मार हरि नई आईस अब जौन हरि आहीत झकझोर के रंग खेलबो। मउहा मंद म माते फागुन तिहार आईस, होरी के आगी धधकिस, संगी संगवारी रंग-गुलाल खेल के हॉसिन गाईन, फेर राधा के मोहन नई-आईस, नईच्च पाइस, अब के बइहा आही त रंग झकाझोर खेलबो, त आहीं त अंकवार अंगमालिका म बाहु बइहां म बल भर बांध लेहौं, ककनी के रनन, पैरी के झनन, चूरी के खनन म मोहिनी थाप देहौं। कइसे लहुट के जाही कस्साई हर!

आज ले कई सौ बछर पहिली जब हमर देस हर गरीब नई रहिस त होरी के तिहार बसंत पंचमी ले रंग पंचमी तक मनाबें, आजौ ले भोपाल कती रंग पंचमी के दिन सिरिफ रंग खेले के तिहार चले आत हे। जब हमर देस म दूध-दही के नदियां बोहावत रहिस, धन धान ले देस भर खुसहाल रहिस, त राजा-राठी संग बड़का बगैचा बारी म सब झन कामदेव के अउ प्रपन पति देव के पूजा करंय, सुंदर, सुघ्घर मोटियारी मन जब अशोक के पेड ल अपन सुग्घर चरन ले हूं देवयं त पइरी पायल के रूनुन-झुनुन ले अशोक फूल उठय, सब चेलिक जवान मोटियारी एक्के संग रंग गुलाल, केसर अबीर म तर बतर बूड़ जावंय, पिचकारी घलाय पीतल चांदी के नहीं सोना के पिचकारी ले नवा कुरता धोती लुगरा चुनरी पहिर के रंग के बरसात म नहावंय, अउ मस्ती 6 ले रसधार में तौरें, दहिकांदो मचावंय।

हमर देस म बिरिज के होरी मसहूर हे, राधा अउ स्याम के होरी मन ल गुदगुदा देथे, देहें ल गुरगुरा देथे, सुंदर नारी के तिरछा कटारी ले पांच नहीं, हजारों बान छूटत हैं, अउ बड़े बड़े जवान घायल होत जात हैं, रंग गुलाल के दहिकांदो में फिसल फिसल, बिछल बिछल जात हैं, लाज संकोच के नाव निहीं कोनो दलकारत हे, फागुन के दिन चार होरी खेल ले रे गोरी! अउ गोरी मन होरी खेलथें अउ रंग म नहाके तर बतर होके बिनती करथे और रंग जिन डारो-रंगी मैं तो रंग निहारे…।

ढीठ होके, निर्लज्ज होके सब ही… हा… हा… हा… हा करत हैं। बुढवा मन घलाय भांग के नसा म झूमत हे…. जवानी के सुरता म मने मन म मुचमुचावत हैं, तव बदन म तनतनावत हैं।

.मस्त महीना फागुन का रे SSS

अरे ऽऽऽ दे दे बुलौआ राधे को…. राधे बिन होरी न होय…. ये होली का त्यौहार बड़ा मादक है, मदमाता है, मस्ती भरा है जिसमें रंग है, भंग है, तरंग है, नंग धडंग है, धूल संग है, ढोल मृदंग है, भैया भौजी की हुड़दंग है, रंग-बिरंग है, ढंग बेढंग है, और बूढे देख देखकर दंग है। फागुन आते ही धरती अपना सोलह सिंगार करती है। परसा फूल के जंगल में आग धधकने लगती है, सेमर के झोत्था फूलों की डार में सुआ चहकने लगते हैं। आम की अमराई मौर-बौर की तेज महक कोकिल को खींचती है…. खेतों में सरसों की पीली पउंरी ओढे दुलहिन हुलस रही है, तो नये कोपल उल्होये पते-हरे… पीले, लाल पाना से सजा बूढा पीपल भी दूलह बनने को आतुर है….. एक ओर आम की छोटी छोटी केरियां है तो दूसरी ओर इमली की नई कोंपल… कुरम्हा… बोहार की सनकी झुनकी फलियां-कलियां… फिर चिरई-चुरगुन के चींउ चीउ के तलाब तरई के बीच फुलचुहकी के चुक-चुक् पनबुड़ी के…. पनकुकरी के चेंक् चेंक्… दइहान जाती गाय बछडे की खरिखा… गले की घंटी टुनटुना रही है…. खड़फड़ी….. खड़र खड़र कर रही है… दूर नगाड़े की आवाज आते ही प्रेमी का मन कसमसाने लगता है… फागुन की रितु नियरानी कोई हमें पिया से मिलावै….। जवान… मदमाते तरूण ललकारते हैं- होली खेल री गोरी…. इधर महुआ की कलियों के समान रतनारे… मदभरे होठों के बीच ददरिया… और नैनों से चलती कटारी और गोरी के आठों अंग गहनों से चुकचुक से सजे हैं और सारी…. जैसे टेसू फूल लुगड़ा की किनारी…. छुनुर छुन्नुर पैरी बजती है, रूनझुन रूनझुन पायल पैरी… पायल… नुपूर के रणन, क्वणन, झनन से दर्शक रसिक का मन झनझना उठता है…. काली काली कोइल बोली

काली काली कोइल बोली होली…. होली…. होली! फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली! होली! होली!! होली !!!

इधर मनचले मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त होलीहार होली खेलने का नेवता दे रहे हैं- ” ” फागुन के दिन चार! होरी खेलेरी गोरी।” तो रंग से सराबोर, तराबोर, गोरियां गिडगिड़ाती है – ” और रंग जिन डारौ रंगी मैं तो रंग तिहारे! ”

इसी समय कोमलांगी, तन्वंगी, छरहरी, कनक छरी सी कामिनी विरह में तडप उठती है-

.फागुन फगुआ बीति गये उधो हरि नहिं आये मोर! अब के जे हरि मोर अइहै, रंग खेलव झकझोर ।।

फागुन की होली बीत रही है, मेरे प्रियतम श्याम नहीं आये सो नहीं आये और अब जब आयेंगे तो खूब झकझोर झूम झूम कर होली खेलेगें, बस उन्हें आने तो दो! तो दूसरी ओर बिरही लोग टेसू के जंगल को देख कह उठते हैं –

“भाग रे भाग चलो बिरही जन, बागन, आगन आग लगी है।”

युवक युवतियों के तन-मन में अनंग का रंग भर गया है… गुलाब, मोगरे की महक मन को मस्त कर रही है। जब समीर में सुरभि घुल जाती है, तो सचमुच प्रियतम बहुत याद आते हैं। मीरा भी राधा बन जाती है। अजीबो गरीब है यह त्यौहार! जब होलीहार को होली की लाल पीली लपटें धधकती दिखाई देती है तो कामदेव का निमंत्रण नगाड़े के पुरूष स्वर में मिलता है- दे दे बुलौआ राधे को…. राधे बिन होरी न होय! ये राधा कौन है? जाने कितने दिनों से, कितने वर्षों से… प्रेम दिवस- वेलेंनटाइन डे हम नाते आ रहे हैं रंग की मस्ती में यौवन की बस्ती में, प्रेम का, जवानी का, सुंदरता का, रूप लावण्य का, मादकता का, मांसलता का, मदिरता का, मोहकता का प्रतीक है- राधा। और राधा के कन्हैया।। होलिका-याने मदन महोत्सव नये परिधान में सोने की पिचकारी में रंग-गुलाल की होली खेला करते थे। आज तो लंगोटी में फाग खेलते हैं। मदिरा भंग और शिकार…. वनवासी होली में शिकार याने गोश्त और सल्फी, लांदा पीते हैं और मस्त हो जाते हैं। जब फागुनी होली की लाल लाल लपटें सफेद धवल राख में बदल जाती है- तो भगवान भूतनाथ जिनकी भभूति भवभूति है, रूद्राक्ष ही माला सांप ही हार, और गरल नीलकंठ की शोभा है- फाग सबसे पहले भगवान भोलेनाथ को सुनाकर रंग गुलाल लगाकर, उत्सव का प्रारंभ किया जाता है उनकी अनुमति लेकर रघुवीरा… या कन्हैया होली खेलते हैं जहां कनु है वहां कनुप्रिया… राधे न हो तो केसी होली… राधे-किसन के बिना… प्रिया परमेश्वरी और प्रियतम परमपुरूष… ही तो प्रेम के, प्रीति के, मधुर प्रेमोपासना के प्रतीक है। उनके प्रणय की लीला का प्रत्येक अपांग अनंग की लीला है, प्रत्येक हाव भाव आलिंगन-चुंबन मदन महोत्सव है।….

जब यौवन लबालब लहरें मार रहा हो, जब भंग की तरंग में आनंद का सागर उमड़ रहा हो, जब होली के कण-कण में हास-विलास का मंत्र मिलता हो, अनंग की रागिनी बजती हो, प्रेम की वारूणी प्रवाहित होती हो तब नीली पीली होली की लपटें आकाशसे लिपटती है और राग-रंग रस विलास की मदिरता से, यौवन की अभिलाषा से, उल्लास की उमड़ती उर्मियों से तन-मन शराबोर हो रहा है… तो गाइये…. होली है हो…. होली है।

जीवन में जंजाल को एक दिन भूलकर भंग की तरंग में डूब जाइये… कुछ नहीं तो गाली खाने के लिए गलियों में भटकते जाइये… गाली गाइये…. गाली खाइये…. हा… हा…हू…हूं.. हास परिहास, अट्टहास… अपहास…रे ला, पेला…खला-झमेला… हुल्लड़… हुडदंग… होली का रंग है रंग गुलाल लगाकर चिल्लाइये…. होली….है…हो…ली है।

.अरे ! होली तो मना लो !!

 

जो दरवाजे पर, आम की फुनगी पर, लताओं की नोक पर, कोयल की काकली पर अमराई के कुंजों पर, उपवन में पादप-पुंजों पर और सबसे अधिक तरूण जवान, किशोर किशोरी, युवक युवती के मन में होली की तरंग, मदन महोत्सव की उमंग उमड़ रही है। वैसे होली का मादक उत्सव मदमाता है, जिसमें रंग है, भंग है, तरंग है, नंग-धडंग है, धूल संग है ढोल-मृदंग है, भैया-भौजी की हुडदंग है, रंग-बिरंग है, ढंग-बेढंग है और दृश्य देखने वाला भी दंग है।

भारत का सबसे अलबेला छैल छबीला, रंग-रंगीला कोई त्यौहार है तो वह होली ही है ऐसा मस्त अलमस्त, बदमस्त त्यौहार कि बूढ़े जवान बन जाते हैं या जवानी की याद में डूब जाते हैं, पुरानी मस्ती की स्मृति में खो जाते हैं, वे भूल जाते हैं कि वे अब क्या हैं- उन्हें होली कहां ले जाती है- जहां वे जवान थे, जहाँ वे मत्त थे, मदमत्त थे, प्रमत्त थे- प्रमाद में प्रमुदित, पुलक में पुलकित, गुदगुदी में गद्गद् हवा में हँसी, अनुभूति में अट्टहास, अभिलाषा में आमंत्रण, निशा मे निमंत्रण और संध्या के झुटपुटे में अभिसार के संकेत मिलते थे। बुढ़ापा भूल और पश्चाताप का युगहै, तो जवानी प्रयास और हास-विलास का युगहै- यौवन सतयुग है, तो बुढ़ापा कलयुग, यौवन प्रभात की सुनहली उषा है, तो वृद्धावस्था सांध्यकालीन आकाश का अवसाद है-छोड़िये भी-अवसाद-वृद्ध, जर्जर, असमर्थ मानस के लिए छोड़कर आज यौवनसौंदर्य रूप, लावण्य, प्रणय, प्रीति, हास-परिहास के इस उत्सव में उत्साह के साथ हिस्सा लें- या फिर मनहूस बन मरघट के उल्लू सदृश कोटर-कुटीर में मुंह छिपा लें।

हाय! सचमुच वह आदमी अभागा है जिसे किसी ने रंग-गुलाल मे न नहलाया हो, अबीर गुलाल से न सहलाया हो जिसे सालियों ने खास उपाधि से न नवाजा हो यदि कोई साथ न दे, कोई संगी-साथी न हो तो चुपके- चुपके चोरी-चोरी अपने उपर गुलाल डाल लें कितना मजा आयेगा जब आप आइने के सामने खड़े होकर निहारेंगे- आईना देखना आत्मरति है, आत्मासक्ति है, अपने आप पर मुग्ध होना है इसीलिये मुग्धा नायिका बार-बार आईना देखती है, दिखाती है उलट पलट करहाव-भाव में मुस्काती, हंसती, खिलखिलाती है होली के उत्सव की अगवानी में- फागुन की ऋतु में प्रकृति सोलह सिंगार करती है, बत्तीस लक्षणें से युक्त योषिता, नवअंकुरित यौवना, वासक सज्जा वधू और अंतरंग केलि- सखी बनकर कोकिल के पंचम स्वर मे पुकारती है…. आजारे…. फागुन की रितु, नियरानी- कोई हमें पिया से मिलावै आम बौरा गये हैं पलाश धधक रहे हैं, महुआ टप टपटपका रहे हैं चमेली खिल उठी है, मोगरे महमहा उठे हैं, चंपा चहक उठी है जूही जगर मगर कर रही है, कुंदक समसा रही है पीपल का पौरूष लालायित हो रहा है, पवन भी पागल हो गया है- तब निराला की जूही को प्रियतम की बड़ी याद आती है। जब पवन में सुरभि घुल जाती है, तो सचमुच प्रियतम बहुत याद आते हैं- मीरा भी राधा बन जाती है, परिणीता भी प्रणयिता बन जाती है, और वधू भी दिन में तारे गिनने लगती है।

अजीबो गरीब है यह त्यौहार-अंडे का पेड़ वसंत पंचमी में गड़ता है तो जैसे महीने भर के लिए रंगपंचमी तक अनंगको खुला आमंत्रण दे दिया जाता है, नगाड़े दहाड़ 2 कर पुकारते हैं- दे दे बुलौआ राधेको- राधे बिन होरी न होय…. अरे..दे… दे… ये राधा कौन है? अरे प्रेम-पर्व में बाधा क्यों डालते हो? जाने कितने दिनों सेकितनो युगोंसे, वर्षों से वळेलेनटाइन डे- हम मनाते आ रहे हैं- रंग को मस्ती में, यौवन की बस्ती में- प्रेम का, यौवन का सौंदर्य का रूप लावण्य का, मादकता का, मोहकता का प्रतीक है- राधा और कान्हा का मदन महोत्सव जिसमें लोग नये परिधान में सोने की पिचकारी ले लेकर, रंग-गुलाल की होली खेला करते थे आज भाई रोगी, भोगी, जोगी की बात उठाकर रंग में भंग मत करिये। साल-बरस का त्यौहार और अपना मुरदा-मुखड़ा लिये जैसे मरघट्टी में बैठे हैं- अरे जब मरोगे तब देखी जायेगी- याने दूसरे देखेंगे- तुम तो आंखें मूंद लोगे खैर छोड़ों- इस दिन नारियों अपने पति की और वर-वधुंए कामदेव की पूजा करती हैं और मदिरा, मदिराक्षी, नवलतन्वंगी की तरंग में बड़े-बड़े बह जाते हैं-वहीं प्रियतम दूर कहीं तो विरहिणी बड़े आंसू में कहती है- फागुन फगुवा बीति गये, हरि नहिं आये मोर।

अब कि जे हरि अइहेंहैं, रंग खेलव झकझोर। जाने कहां जनवारी विलम गया, अब कि आया तो झकझोर झुमझुम के खेलेंगें-प्रियतम को आने तो दो जोड़ी जॉवर में होली का मजा है, सपत्नीक अकेले, कुंवारे, विधुर- के लिए यह त्यौहार वर्जित है- उन्हे तो अनशन पर बैठ जाना चाहिये- भोरवा में जाकर – धरणी पर धरना देना चाहिये-बेचारे! भाग्य के मोर दुर्भाग्य से टूटे हुए, परिवार से छूटे हुए, संघर्ष में लूटे हुए कितने अकेले आज ।

जीवन में जंजाल अधिक है, त्रास, संत्रास, अथवा कदम कदम पर कशमकश तो है ही- फिर एक दिन होली के दिन उसे भूल नहीं सकते। शूल की पीड़ा को भूलना सहज है- केवल भंग की तरंग में डूब जाइये अथवा कविता कामिनी की कादंबरी में करवट लीजिये कुछ नहीं तो गाली खाने के लिए गलियों में भटकते जाइये इस दिन गाली खाने का अलग ही मजा है, हंसने का अलग ही स्वाद है, अट्टहास का अपना आस्वादन है, यह तो होली है…. हुल्लड़ हा… हा… हू…हू… हास-उपहास, परिहास, अतिहास का अलबेला मेला-ठेला-रेलापेला- खेला- झमेला…. नही तो चुपचाप रो अकेला… अरमन को मतंग, महंत मान करमत्त- प्रमत्त होकर एक बार जोर से गुलाल फेक-हो-होली…. हो…..ली….. है।

: होली खेल री गोरी”

इस होली का संसार ही निराला है। यहां पर सदा कोकिलाएं क्रुजन करती है। यहां पर सदैव पारिजात पाटल, कचनार, कामिनी बेला के ही फूल खिला करते हैं, पर उनमें कांटे नहीं होते, मादकता होती है। रजनी भर उपधान के सहारे गिना करते हैं विरहिणी रात भर जागा करती है। वियोगी उनके नेत्रों में ही रात समा जाती है। इस मदन-महोत्सव के जीवन में सौन्दर्य, माधुर्य, सौष्ठव, मंजुलता, मदिरता, मोहकता और मसृणता के सिवाय कुछ नहीं, जहां हमारी कामनाएं ही राज्य करती है। पथ है, उनमें भी गुलाब है, शैया है उसमें भी गुलाब है, और देह है उसमें भी गुलाब की गंध है। सारा संसार ही गुलाबमय है। जहां आंखे जाती है, वहां बेसुधि मस्ती छाई है। छेल छबीले पलाश के फूलों तक में लाल जवानी उभर आई है। सारी प्रकृति का सौन्दर्य भी मधुयामिनी की जुन्हाई में नहीं समा रहा है। गगन कुंज में चन्द्र और रजनी मिलते हैं। रजनी मुस्करा रही है, चन्दा हंस रहा है।

होलिका की लाल नीली लपटें धू-धू कर आकाश को छू रही है। गगन का चन्दा अलसाई आंखों से निहार रहा है। कामिनियों के कलेवरों का क्या कहना ? कुमुदिनियां भी तन्द्रा में अंगड़ाई ले रही है और

“मानव इस दिन पत्तों के मर्मर में आलिंगन के भाव देखता है, संध्या के अम्बर में अनुराग का अरूण विकास और अरूणिम उषा की रोली में उल्लास मिलता है। सरिता का कलकल प्रवाह मन को गुदगुदा रहा है और कोयल की कूक में तो वियोगिनी की तड़पन, प्रोषितपतिका की आकांक्षा और संयोगिनी का आहलाद दिखता है। गुप्त जी की कोयल बोल उठती है –

“काली काली कोइल बोली, होली….. होली……. होली ! हंसकर लाल लाल होठों पर, हरियाली हिल डोली, फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की, पीली पीली चोली। होली होली होली ।।”

कण-कण में अनंग, की लीला वासना का उन्माद, यौवन का प्रमाद ही दिखाई देता है। होली जवानी, मस्ती, प्रसन्नता और आनन्द का ही उत्सव है। जो बूढ़े हैं, मनहूस हैं, और हमेशा मर्सिया गाते हैं, यह उनका त्यौहार नहीं।

बरस भर का त्यौहार ठहरा ! आज तो बूढ़े भी भंग की तरंग में जवानी की याद कर लेते हैं।

जीवन में संघर्ष, ऊहापोह तो रहेंगे ही। दुःख-सुख की आंख मिचौनी कभी बंद नहीं होगी। इसीलिये दुःख में भी सुख और संतोष पा लेना चाहिए हम तो सदा प्रसन्न रहे और रहेंगे। भारतीयों के रोने गाने के नहीं हंसने-खेलने के उत्सव रहते हैं।

आज से शताब्दियों पूर्व स्वर्णिम गुप्तकाल के मदन महोत्सव को कौन भूल सकता है ? जब बसंतपंचमी को राज उपवन में कामदेव की, और पतिदेव की पूजा होती थी। सुंदरियां जब अशोक वृक्ष पर पद स्पर्श के लिए रखती थी तब अशोक के फूल खिल उठते थे, और सब जनता अबीर, गुलाल, केसर और रंगवर्षा में सरोबार हो उठती थी। पिचकारियों से रस की धाराएं प्रवाहित होती थी। श्रृंगक जीवन रस बरसाते थे। वह था भारत का मदन महोत्सव जो एक माह तक बसंत पंचमी से रंगपंचमी तक समस्त उत्तरप्रदेश को सरोबार किए रहता था।

प्राचीन ब्रज की होली, राधा व श्याम की “होरी” तो आज भी मन को गुदगुदाती है। तन्वंगी बालाओं की चितवन से पांच नहीं, सहस्त्रों बाण छूट रहे हैं और बांके जवान घायल हो रहे हैं। रंग और अबीर के कर्दम में पैर फिसल पड़ते हैं। लज्जा और संकोच का तो पता ही नहीं है। छेल छबीले पुकारते हैं।

फागुन के दिन चार होरी खेल री गोरी ।”

और गोरियां “होरी” खेलती है। रंग से नहाकर गोपियां गिड़गिड़ाती है।

“और रंग जिन डारौ

श्रंगी मैं तो रंग तिहारे।”

और इसी समय कोमलांगी विरहिणी कह उठती है

“फागुन फगुआ बीत गए ऊधो हरि नहिं आए मोर।

अब की जे हरि मोर ऐहैं, रंग खेलब झकझोर।।”

कैसी करूण कामना है! फागुन बीत रहा है प्रिय श्याम न आये न आये। खैर अब आयेंगे तो झकझोर कर, परिप्लावित हो झूमकर खेलेंगी, बस उन्हें आने तो दो !

” जब प्रकृति नयनों में मलयानिल का कम्पन भरकर अधरों पर गुलाब का चुम्बन समेट कर अंग-अंग में अनंग का रंग भरकर गा रही है तब वियोगिनी कह पड़ती है

“रितु फागुन नियरानी, हमें कोई पिया से मिलावे।”

काश ! उसके प्रियतम आ जाते ! ब्रज की होली का वर्णन प‌द्माकर ने खूब किया, वैसे तो ब्रज की होली प्रसिद्ध ही है, फिर भी उनका होलिकोत्सव निराला है, मस्त करने वाला है। श्याम के साथ ब्रज बालाएं होली खेल रही है

“था अनुराग की फाग लखौ, जहां रागती राग किशोर किशोरी, त्यों पदमाकर घली घली, फिर लाल ही लाल गुलाल की झोरी। जैसी की तैसी रही पिचकी कर, काहू न केसर रंग में बोरी, गोरिन के रंग भींजिगो सांवरो सांवरे के रंग भींजी सु गोरी।।”

इतना ही नहीं, ढीठ बालाएं आज उन्मत्त हो गई है। सब मिलकर श्याम को पकड़ लेती है और दुर्दशा कर डालती हैं। राधा तो लाज के कारण चुनरी की आड़ में हंसती रहती है।

“चन्द्र कला चुनि चूनरी चारू,

दई पहिराय, सुनाय सुहोरी

बेदी विशाखा रूचि पद्माकर

अंजनि आंजि समाज करोरी।

लागि जबै ललिता पहिरावन,

श्याम को कंचुकी केसर बोरी

हेरि हरें मुसुकाइ रही,

अंचरा मुख दै वृषभान किशोरी

फाग के भीर अभीरन पै, गहि गोविंद लै गयी भीतर गोरी भाई करी मन की मदुमाकर ऊपर नाई गुलाल की झोरी छीनि पितम्मर कम्मर सै, सुबिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी, नैन नचाय कह्यो मुसकाय, लला फिर अइयो खेलन होरी।”

नटखट श्याम अपनी इस दुर्दशा पर तो खीझे थे ही, ऊपर से मित्रों ने भी खूब हंसी की। भाग्यवश रास्ते में एक होली खेलने वाली ब्रजबाला मिल ही तो गई। श्याम ने सारी कसर निकाल ली। अकेली पा उसे अबीर से भर दिया। बिचारी घबरा कर भागी। उसने आंखों का अबीर धोया, साफ किया पर उनमें केवल अबीर तो भरा नहीं था, स्वयं श्याम समाये हुए थे, अतः पीड़ा क्या कम होती ?

“एकै संग धाए, नन्दलाल औ गुलाल दोऊ दुगनि गये जू भरि आनंद मढे नहीं धोय धोय हारी प‌द्माकर तिहारी सोंह अब तौ उपाय एकौ चित्त में चढ़े नहीं कैसी करौं कहां जाऊँ कासो कहाँ कौन सुने कोऊ तो निकासै जासों दरद बढ़े नहीं एरी मेरी बीर ! जैसे तैसे – इन आंखिन से कढ़िगो अबीर पै अहीर को कढ़े नहीं ।”

क्या किया जाय, अहीर तो ऐसा है जो निकलने का नाम ही नहीं लेता। होली ही तो ठहरी, ब्रजबालाएं लज्जाहीन सी ही तो हो जाती है। जब मर्यादा की बात याद आती है तो लज्जा को ढूंढती फिरती है, देखिये

“फहर गई धो फबै रंग के फुहारन में

कैधो तराबोर भई अंतर अपीच में,

कहै पद्याकर चुभी सी चारू चोबन में

उलधि गई धों कहूं अगर उलीच में।

हाय! इन नैनन से निकरि हमारी लाज

कित धौं हेरानी हुरिहान के बीच में, उलझि गई धों कहूं उड़ति अबीर रंग कचर गई धों कहूं केशर के कीच में।।

अब होली खेलकर लौटी हुई एक ब्रजांगना अपनी चुनरी निचोड़ रही है। देखिये –

“आई खेल होरी घरे नवल किशोरी कहूं बेरी गई रंगन सुगंधन झकोरे है, कहै प‌द्माकर इकंत चलि चौकी चढ़ि हारन के वारन से फंद बंद छोरे हैं, घांघरे की घूमनि सु उरून दुबीच दाबि आंगिही उतारि सुकुमारी मुख मोरे हैं, दंतन अधर दाबि दूबर भई सी चांपि चोबर पचौवर के चुनरी निचोरे है।”

जब लबालब यौवन लहरें मारता हो, जब भंग की तरंग में आनंद उदधि

उमड़ रहा हो, जब होली के कण कण में हास विलास का मंत्र मिलता है, अनंग की

रागिनी बजती है, और प्रेम की वारूणी प्रवाहित हो उठती है। लावण्य के लपटों में शलभ

झुलसते हैं, नीली पीली होली की लपटें आकाश से लिपटती है और राग रंग, रस विलास

की मधुरता से, यौवन की अभिलाषा से, उल्लास की उर्मियों से सिक्त शराबोर हो रहा है।

जीवन, और अस्फुट बाणी गा रही है होली है! होली है !! हो…..ली…… है !!!

 

सभी  आलेख के लेखक हैं

डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा

35 ए, विद्यानगर, बिलासपुर (छ०ग०)

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