(हरितालिका और गणेश चतुर्थी ) ***डा पालेश्वर शर्मा ***
भगवती पार्वती की आराधना का सौभाग्य व्रत, जो केवल महिलाओं के लिए है। यह भाद्रपद शुक्ल तृतीया को प्राय: निर्जल व्रत है। रात्रि में शिव-गौरी की पूजा और जागरण होता है, दूसरे दिन प्रात: विसर्जन के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण किया जाता है। अलियों (सखीयों) के व्दारा हरित (अपहृत) होकर पार्वती ने एक कंदरा में इस व्रत का पालन किया था, इसलिये इस व्रत का नाम हरितालिका प्रसिद्ध हो गया। शिव पुराण के अनुसार एक बार बाहर व्दा्र पर नंदी को बैठाकर पार्वती स्नान कर रही थी, कि शिव बाहर से टहलते हुए आए और भीतर जाने लगे। नन्दी ने उन्हें बहुत रोका-टोका पर वे किसके रोके रूकने वाले थे ? वे नन्दी को डांट-फटकार कर भीतर चले गए। पार्वती उन्हें देखकर बहुत लजा गई। तब उनकी सखी जया-विजया ने उनसे कहा – ”शिवजी के तो सैकड़ों सेवक हैं, आपके कोई नहीं है। आप भी एक सेवक बना खड़ा कीजिये।” कहने भर की देर थी। अपने शरीर से छुड़ाया हुआ उबटन लेकर भाद्रपद कृष्णा चतुर्थी के दिन उन्होंने एक सुन्दर पुरूष बना खड़ा करके उसे जिला दिया और कहा – ”तुम मेरे बेटे हो, सारे गुण तुममें आ भरेंगे और कोई माई का लाल तुम्हें जीत नहीं पावेगा।” यह कहकर उन्होंने उसे गोद में उठा बैठाया और कहा – ”आज से तुम मेरे व्दारपाल हो गए। मुझसे बिना पूछे कोई भीतर न आने पाये चाहे वह कोई भी क्यों न हो।”
यह कहकर पार्वती ने उसे एक डण्डा उठा कर थमाया, और वे व्दार पर जा डटे। पार्वती भीतर निश्चिंत होकर स्नान करने लगी। इसी बीच शिव बाहर से आकर भीतर जाने लगे तब गणेश उन्हें भी रोकने लगे। यह देखकर शिव को बड़ा अचम्भा हुआ कि यह कौन नया पहरेदार आ धमका है ? उन्होंने उसी ताव में कहा – ”तू कौन मुझे भीतर जाने से रोकने वाला है?” पर गणेश किसकी सुनने वाले थे? वे व्दार पर डण्डा अड़ाकर जा खड़े हुए। शिव ने यह देखकर अपने गणों से कहा – ”हटाओ इसे, यह कौन यहां आ खड़ा हुआ है?” गणों ने उससे जाकर पूछा तो वे बोले- ”मैं पार्वती माता का बेटा हूं। बहुत ची चपड़ की तो यह डण्डा होगा और तुम्हारा सिर। गणों ने शिवजी से ज्यों का त्यों जा कहा। उस पर शिव जी ने बिगड्कर कहा- ”हटाओ इसे यहां से। कोई भी हो।”
गणेश और शिव जी के गणों में गरमा गरमी, कहा-सुनी होने लगी। विजया ने पार्वती से सब कांड जा सुनाया। पार्वती ने गणेश के लिए एक पगड़ी भी निकाल भेजी। अब तो गणेश और शेर हो गए। उन्होंने सबको ललकारा- ”मेरी माता ने मुझे यहां व्दार पर भेज खड़ा किया है। देखता हूं किसकी मां ने दूध पिलाया है जो भीतर चला आवे।”
शिवजी के गणों में और गणेश में ठॉय ठॉय होने लगी। लड़ाई छिड़ गई। गणेश जी ने देखते देखते सबको मार बिछाया। तब शंकर के पुकारने पर देवता भी गणेश से लड़ने आ पहुंचे। विजया से यह बात सुनकर पार्वती लाल हो उठी और उन्होंने दो शक्तियां उत्पन्न करके गणेश जी की सहायता के लिए भेजी। उनका आना था कि देवताओं के चलाए हुए सारे अस्त्र शस्त्र उन शक्तियों के मुख में जा जा समाने लगे। आए तो विष्णु भी पर वे सब समझकर चुपके से खिसक गए। तब भगवान शंकर अपने आप आ डटे और उन्होंने अपने त्रिशूल से गणेश का सिर काट गिराया।
काटने को तो उन्होंने गणेश का सिर काट गिराया, पर उनका जी भीतर ही भीतर कचोटने लगा और वे बहुत दुखी मन से एक ओर जा बैठे। यह समाचार सुनकर पार्वती की त्योरियों चढ् गई- ”मेरे बालक को कोई ऐसे मार डाले ? हूं…..? उन्होंने देखते देखते सैकड़ों शक्तियां उपजा खड़ी की और कहा – ”देखती क्या हो ? जाओ, जो सामने मिले उसे डकार जाओ, चबा जाओ, खा जाओ, निगल जाओ।” कहने भर की देर थी। वे मुंह बांए जीभ लपलपाएं दौड़ पड़ी और जो मिला उसे पकड़ पकड़ कर खाने लगी।
अब तो चारों ओर हाहाकर मच गया। पार्वती भी आठ भुजा वाली बनकर सिंह पर चढ़ी आकर दहाड़ उठी। यह देखकर सब देवता नारद को लेकर जगन्माता पार्वती के पास पहुंचकर लगे गिड़गिड़ानें। पार्वती ने कहा – ”जब तक मेरा बेटा जीकर उठ खड़ा नहीं होता, तब तक मैं किसी की एक नहीं सुनने वाली हूं। तुमने समझ क्या रखा है ?” सबने उनका यह संदेश शिव को जा सुनाया। शिव ने उनसे कहा — ”ऐसा करो कि उत्तर की ओर बढ़े चले जाओ और जो पहले मिले उसी का सिर काट लाकर इसके धड़ पर जोड़ दो क्योंकि इसका अपना सिर तो मेरे त्रिशुल से भस्म हो चुका है।”
उत्तर की ओर जाते हुए उन्हें एक उजले रंग का हाथी आता दिखाई दे गया। बस वे उसका सिर उतार लाए और वही हाथी का सिर गणेश् के धड़ पर रखकर अश्विनी कुमारों ने जोड़कर जो जल छिड़का तो वह जीवित हो उठा। पार्वती ने लपक कर उसे जब अपनी गोद में ले बैठाया तब कहीं जाकर शांति हो पाई। पार्वती ने उससे कहा ””तुम्हारे माथे पर सिन्दूर लगा है इसलिए सिन्दूर से ही तुम्हारी पूजा हुआ करेगी और जो तुम्हारी पूजा किया करेगा उसके काम में कभी कोई बाधा नहीं पड़ेगी।” देवताओं ने उन्हें गणपति गणाध्यक्ष बना दिया और उन्हें शिव की गोद में ले जा बैठाया। शिव भी बोल उठे — ”यह मेरा दूसरा बेटा है।” सब देवताओं ने एक स्वर से मान लिया कि देवताओं में सबसे पहले गणेश की ही पूजा हुआ करेगी। तब से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश का जन्म मनाया जाने लगा।
गणेश पुराण के अनुसार पुत्र पाने की इच्छा से शिव और पार्वती गणेश की पूजा करने लगे। इसी बीच एक दिन वे सोए पड़े थे कि एक बूढ़े ब्राम्हण ने व्दार पर आकर देखा तो वहां कोई नहीं था। वहां से लौटकर वे देखती क्या है कि एक नन्हा मुन्ना उनके पलंग पर पड़ा हंस-खेल रहा है। उन्होंने झट से उसे गोद में ले उठाया। फिर तो उसे देखने के लिए सारे देवता और ऋषी आ इकट्ठे हुए। सब उसे आशीर्वाद देने लगे पर शनैश्वर सिर झुकाए चुपचाप धीरे से दूर खिसक गया। पार्वती को यह बहुत बुरा लगा। बहुत कहने पर शनैश्वर ने ज्यों ही उस बालक की ओर देखा कि उसका सिर धड़ से अलग जा गिरा। शनि ने कहा- ”मैं पहले ही कह रहा था कि मुझे मत दिखाइये, मेरी द़ृष्टी अच्छी नहीं हैा”
अब तो पार्वती रोने-पीटने लगी। पर तभी शिव ने आकर उसका सिर तो अपनी मुंडमाला में उठा पिरोया और उनके कहने पर हाथी का सिर उस बालक के धड़ पर ला जोड़ा गया। यही गणेश हुए।
ब्रम्हाण्ड पुराण के अनुसार ऋषी पंचमी का व्रत भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन मनाया जाता है। यह सभी वर्णो के लिए है, किन्तु महिलाएं वर्ष भर की अपवित्रता एवं अस्पृश्यता के प्रायश्चित हेतु करती है। नदी में स्नान के बाद सप्तर्षियों की कुश से बनी प्रतिमाओं की पूजा पंजामृत से करके पंचोपचार विधि का पालन किया जाता हैा मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कतु और वशिष्ठ ये सात ऋषी माने गये हैं।